॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९)
विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
देवा ऊचुः –
नमाम ते देव पदारविन्दं
प्रपन्नतापोपशमातपत्रम् ।
यन्मूलकेता यतयोऽञ्जसोरु
संसारदुःखं बहिरुत्क्षिपन्ति ॥ ३८ ॥
धातर्यदस्मिन् भव ईश जीवाः
तापत्रयेणाभिहता न शर्म ।
आत्मन्लभन्ते भगवंस्तवाङ्घ्रि
च्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥ ३९ ॥
मार्गन्ति यत्ते मुखपद्मनीडै-
श्छन्दःसुपर्णैः ऋषयो विविक्ते ।
यस्याघमर्षोदसरिद्वरायाः
पदं पदं तीर्थपदः प्रपन्नाः ॥ ४० ॥
यत् श्रद्धया श्रुतवत्या च भक्त्या
सम्मृज्यमाने हृदयेऽवधाय ।
ज्ञानेन वैराग्यबलेन धीरा
व्रजेम तत्तेऽङ्घ्रिसरोजपीठम् ॥ ४१ ॥
देवताओंने कहा—देव ! हम आपके चरणकमलों की वन्दना करते हैं। ये अपनी शरणमें आये हुए जीवोंका ताप दूर करनेके लिये छत्रके समान हैं तथा इनका आश्रय लेनेसे यतिजन अनन्त संसार- दु:खको सुगमतासे ही दूर फेंक देते हैं ॥ ३८ ॥ जगत् कर्ता जगदीश्वर ! इस संसारमें तापत्रयसे व्याकुल रहनेके कारण जीवोंको जरा भी शान्ति नहीं मिलती। इसलिये भगवन् ! हम आपके चरणोंकी ज्ञान- मयी छायाका आश्रय लेते हैं ॥ ३९ ॥ मुनिजन एकान्त स्थानमें रहकर आपके मुखकमलका आश्रय लेनेवाले वेदमन्त्ररूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियोंमें श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजीके उद्गमस्थान हैं, आपके उन परम पावन पादपद्मोंका हम आश्रय लेते हैं ॥ ४० ॥ हम आपके चरणकमलोंकी उस चौकीका आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवणकीर्तनादिरूप भक्तिसे परिमार्जित अन्त:करणमें धारण करके वैराग्यपुष्ट ज्ञानके द्वारा परम धीर हो जाते हैं ॥ ४१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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