॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
कालेन सोऽजः पुरुषायुषाभि
प्रवृत्तयोगेन विरूढबोधः ।
स्वयं तदन्तर्हृदयेऽवभातं
अपश्यतापश्यत यन्न पूर्वम् ॥ २२ ॥
मृणालगौरायतशेषभोग
पर्यङ्क एकं पुरुषं शयानम् ।
फणातपत्रायुतमूर्धरत्नु
द्युभिर्हतध्वान्तयुगान्ततोये ॥ २३ ॥
प्रेक्षां क्षिपन्तं हरितोपलाद्रेः
सन्ध्याभ्रनीवेरु रुरुक्ममूर्ध्नः ।
रत्नो्दधारौषधिसौमनस्य
वनस्रजो वेणुभुजाङ्घ्रिपाङ्घ्रेः ॥ २४ ॥
आयामतो विस्तरतः स्वमान
देहेन लोकत्रयसङ्ग्रहेण ।
विचित्रदिव्याभरणांशुकानां
कृतश्रियापाश्रितवेषदेहम् ॥ २५ ॥
इस प्रकार पुरुषकी पूर्ण आयुके बराबर कालतक (अर्थात् दिव्य सौ वर्षतक) अच्छी तरह योगाभ्यास करनेपर ब्रह्माजीको ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठानको, जिसे वे पहले खोजनेपर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्त:करणमें प्रकाशित होते देखा ॥ २२ ॥ उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जलमें शेषजीके कमलनालसदृश गौर और विशाल विग्रहकी शय्यापर पुरुषोत्तम भगवान् अकेले ही लेटे हुए हैं। शेषजीके दस हजार फण छत्रके समान फैले हुए हैं। उनके मस्तकोंपर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्तिसे चारों ओर का अन्धकार दूर हो गया है ॥ २३ ॥ वे अपने श्याम शरीर की आभा से मरकतमणि के पर्वत की शोभा को लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमर का पीतपट पर्वत के प्रान्त देश में छाये हुए सायंकाल के पीले-पीले चमकीले मेघों की आभा को मलिन कर रहा है, सिर पर सुशोभित सुवर्णमुकुट सुवर्णमय शिखरों का मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वत के रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पों की शोभा को परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्ड का और चरण वृक्षों का तिरस्कार करते हैं ॥ २४ ॥ उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाण से लंबाई-चौड़ाई में त्रिलोकी का संग्रह किये हुए है। वह अपनी शोभा से विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणों की शोभा को सुशोभित करनेवाला होने पर भी पीताम्बर आदि अपनी वेष-भूषा से सुसज्जित है ॥ २५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🥀💖🌹जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव ‼️
नारायण नारायण हरि: !! हरि: !!