॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन
द्वादशार्धपलोन्मानं चतुर्भिश्चतुरङ्गुलैः ।
स्वर्णमाषैः कृतच्छिद्रं यावत् प्रस्थजलप्लुतम् ॥ ९ ॥
यामाश्चत्वारश्चत्वारो मर्त्यानामहनी उभे ।
पक्षः पञ्चदशाहानि शुक्लः कृष्णश्च मानद ॥ १० ॥
तयोः समुच्चयो मासः पितॄणां तदहर्निशम् ।
द्वौ तावृतुः षडयनं दक्षिणं चोत्तरं दिवि ॥ ११ ॥
अयने चाहनी प्राहुः वत्सरो द्वादश स्मृतः ।
संवत्सरशतं नॄणां परमायुर्निरूपितम् ॥ १२ ॥
छ: पल ताँबेका एक ऐसा बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोनेकी चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतनके पेंदेमें छेद करके उसे जलमें छोड़ दिया जाय। जितने समयमें एक प्रस्थ जल उस बरतनमें भर जाय, वह बरतन जलमें डूब जाय, उतने समयको एक ‘नाडिका’ कहते हैं ॥ ९ ॥ विदुरजी ! चार-चार पहरके मनुष्य के ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पंद्रह दिन-रात का एक ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेद से दो प्रकार का माना गया है ॥ १० ॥ इन दोनों पक्षोंको मिलाकर एक ‘मास’ होता है, जो पितरोंका एक दिन-रात है। दो मासका एक ‘ऋतु’ और छ: मासका एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और ‘उत्तरायण’ भेदसे दो प्रकारका है ॥ ११ ॥ ये दोनों अयन मिलकर देवताओंके एक दिन-रात होते हैं तथा मनुष्यलोक में ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते हैं। ऐसे सौ वर्षकी मनुष्यकी परम आयु बतायी गयी है ॥ १२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💟🥀 जय श्रीकृष्ण🙏 🙏
जवाब देंहटाएंश्रीराधेकृष्णाभ्याम् नमः