॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
सृष्टिका विस्तार
रुद्राणां रुद्रसृष्टानां समन्ताद् ग्रसतां जगत् ।
निशाम्यासंख्यशो यूथान् प्रजापतिरशङ्कत ॥ १६ ॥
अलं प्रजाभिः सृष्टाभिः ईदृशीभिः सुरोत्तम ।
मया सह दहन्तीभिः दिशश्चक्षुर्भिरुल्बणैः ॥ १७ ॥
तप आतिष्ठ भद्रं ते सर्वभूतसुखावहम् ।
तपसैव यथापूर्वं स्रष्टा विश्वमिदं भवान् ॥ १८ ॥
तपसैव परं ज्योतिः भगवन्तमधोक्षजम् ।
सर्वभूतगुहावासं अञ्जसा विन्दते पुमान् ॥ १९ ॥
मैत्रेय उवाच ।
एवमात्मभुवाऽऽदिष्टः परिक्रम्य गिरां पतिम् ।
बाढमित्यमुमामन्त्र्य विवेश तपसे वनम् ॥ २० ॥
भगवान् रुद्र के द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रों को असंख्य यूथ बनाकर सारे संसार को भक्षण करते देख ब्रह्माजीको बड़ी शङ्का हुई ॥ १६ ॥ तब उन्होंने रुद्रसे कहा, ‘सुरश्रेष्ठ ! तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयङ्कर दृष्टि से मुझे और सारी दिशाओं को भस्म किये डालती है; अत: ऐसी सृष्टि और न रचो ॥ १७ ॥ तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियोंको सुख देनेके लिये तप करो। फिर उस तपके प्रभावसे ही तुम पूर्ववत् इस संसारकी रचना करना ॥ १८ ॥ पुरुष तपके द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योति:स्वरूप श्रीहरिको सुगमतासे प्राप्त कर सकता है’ ॥ १९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—जब ब्रह्माजीने ऐसी आज्ञा दी, तब रुद्रने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करनेके लिये वनको चले गये ॥ २० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
Jai shree krishn🙏🌹
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएं🥀💟🌹जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण