॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
सृष्टिका विस्तार
विद्या दानं तपः सत्यं धर्मस्येति पदानि च ।
आश्रमांश्च यथासंख्यं असृजत्सह वृत्तिभिः ॥ ४१ ॥
सावित्रं प्राजापत्यं च ब्राह्मं चाथ बृहत्तथा ।
वार्ता सञ्चयशालीन शिलोञ्छ इति वै गृहे ॥ ४२ ॥
वैखानसा वालखिल्यौ दुम्बराः फेनपा वने ।
न्यासे कुटीचकः पूर्वं बह्वोदो हंसनिष्क्रियौ ॥ ४३ ॥
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथैव च ।
एवं व्याहृतयश्चासन् प्रणवो ह्यस्य दह्रतः ॥ ४४ ॥
विद्या, दान, तप और सत्य—ये धर्मके चार पाद और वृत्तियोंके सहित चार आश्रम भी इसी क्रम से प्रकट हुए ॥ ४१ ॥ [*] सावित्र१ प्राजापत्य२, ब्राह्म३ और बृहत्४—ये चार वृत्तियाँ ब्रह्मचारी की हैं तथा वार्ता५, सञ्चय६, शालीन७ और शिलोञ्छ८—ये चार वृत्तियाँ गृहस्थकी हैं ॥ ४२ ॥ इसी प्रकार वृत्तिभेद से वैखानस९, वालखिल्य१०, औदुम्बर११ और फेनप१२—ये चार भेद वानप्रस्थों के तथा कुटीचक१३, बहूदक१४, हंस१५ और निष्क्रिय (परमहंस१६)—ये चार भेद संन्यासियों के हैं ॥ ४३ ॥ इसी क्रमसे आन्वीक्षिकी१७, त्रयी१८, वार्ता१९ और दण्डनीति२०—ये चार विद्याएँ तथा चार व्याहृतियाँ २१ भी ब्रह्माजीके चार मुखों से ही उत्पन्न हुर्ईं तथा उनके हृदयाकाश से ॐकार प्रकट हुआ ॥ ४४ ॥
.....................................................................
[*] १. उपनयन संस्कारके पश्चात् गायत्रीका अध्ययन करनेके लिये धारण किया जानेवाला तीन दिनका ब्रह्मचर्यव्रत। २. एक वर्षका ब्रह्मचर्यव्रत। ३. वेदाध्ययनकी समाप्तितक रहनेवाला ब्रह्मचर्यव्रत। ४. आयुपर्यन्त रहनेवाला ब्रह्मचर्यव्रत। ५. कृषि आदि शास्त्रविहित वृत्तियाँ। ६. यागादि कराना। ७. अयाचित वृत्ति। ८. खेत कट जानेपर पृथ्वीपर पड़े हुए तथा अनाजकी मंडी में गिरे हुए दानों को बीनकर निर्वाह करना। ९. बिना जोती-बोयी भूमिसे उत्पन्न हुए पदार्थोंसे निर्वाह करनेवाले। १०. नवीन अन्न मिलनेपर पहला सञ्चय करके रखा हुआ अन्न दान कर देनेवाले। ११. प्रात:काल उठनेपर जिस दिशाकी ओर मुख हो, उसी ओरसे फलादि लाकर निर्वाह करनेवाले। १२. अपने-आप झड़े हुए फलादि खाकर रहनेवाले। १३. कुटी बनाकर एक जगह रहने और आश्रमके धर्मका पूरा पालन करनेवाले। १४. कर्मकी ओर गौणदृष्टि रखकर ज्ञानको ही प्रधान माननेवाले। १५. ज्ञानाभ्यासी। १६. ज्ञानी जीवन्मुक्त। १७. मोक्ष प्राप्त करानेवाली आत्मविद्या। १८. स्वर्गादिफल देनेवाली कर्मविद्या। १९. खेती-व्यापारादि-सम्बन्धी विद्या। २०. राजनीति। २१. भू:, भुव:, स्व:—ये तीन और चौथी, मह:को मिलाकर, इस प्रकार चार व्याहृतियाँ आश्वलायन ने अपने गृह्यसूत्रों में बतलायी हैं—‘एवं व्याहृतय: प्रोक्ता व्यस्ता: समस्ता:।’ अथवा भू:, भुव:, स्व: और मह:—ये चार व्याहृतियाँ, जैसा कि श्रुति कहती है—‘भूर्भुव: सुवरिति वा एतास्तिस्रो व्याहृतयस्तासामु ह स्मैतां चतुर्थीमाह। वाचमस्य प्रवेदयते मह:’ इत्यादि।
शेष आगामी पोस्ट में --
🥀💟🌹ॐश्रीपरमात्मने नमः
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद नारायण के वांग्मय स्वरुप श्रीमद् भागवत महापुराण पंचम वेद को सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: वंदन प्रणाम🙏🙏