॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)
जय-विजय को सनकादि का शाप
तेषामितीरितमुभाववधार्य घोरं ।
तं ब्रह्मदण्डमनिवारणमस्त्रपूगैः ।
सद्यो हरेरनुचरावुरु बिभ्यतस्तत् ।
पादग्रहावपततामतिकातरेण ॥ ३५ ॥
भूयादघोनि भगवद्भिरकारि दण्डो ।
यो नौ हरेत सुरहेलनमप्यशेषम् ।
मा वोऽनुतापकलया भगवत्स्मृतिघ्नो ।
मोहो भवेदिह तु नौ व्रजतोरधोऽधः ॥ ३६ ॥
सनकादि के ये कठोर वचन सुनकर और ब्राह्मणों के शाप को किसी भी प्रकार के शस्त्रसमूह से निवारण होने योग्य न जान कर श्रीहरि के वे दोनों पार्षद अत्यन्त दीनभाव से उनके चरण पकडक़र पृथ्वी पर लोट गये। वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं ॥ ३५ ॥ फिर उन्होंने अत्यन्त आतुर होकर कहा—‘भगवन् ! हम अवश्य अपराधी हैं; अत: आपने हमें जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिये। हमने भगवान् का अभिप्राय न समझकर उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है। इससे हमें जो पाप लगा है, वह आपके दिये हुए दण्डसे सर्वथा धुल जायगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशा का विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा-सा भी अनुताप हो, तो ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियों में जानेपर भी हमें भगवत्स्मृति को नष्ट करनेवाला मोह न प्राप्त हो ॥ ३६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🥀💖🌹जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण