॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन
येषां बिभर्म्यहमखण्डविकुण्ठयोग
मायाविभूतिरमलाङ्घ्रिरजः किरीटैः ।
विप्रांस्तु को न विषहेत यदर्हणाम्भः
सद्यः पुनाति सहचन्द्रललामलोकान् ॥ ९ ॥
ये मे तनूर्द्विजवरान्दुहतीर्मदीया
भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्ध्या ।
द्रक्ष्यन्त्यघक्षतदृशो ह्यहिमन्यवस्तान्
गृध्रा रुषा मम कुषन्त्यधिदण्डनेतुः ॥ १० ॥
(श्रीभगवान् कह रहे हैं) योगमायाका अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गङ्गाजी चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करनेवाले भगवान् शङ्कर के सहित समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनकी पवित्र चरण-रज को अपने मुकुट पर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणों के कर्म को कौन नहीं सहन करेगा ॥ ९ ॥ ब्राह्मण, दूध देने वाली गौएँ और अनाथ प्राणी—ये मेरे ही शरीर हैं। पापों के द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जाने के कारण जो लोग इन्हें मुझ से भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराज के गृध्र-जैसे दूत—जो सर्प के समान क्रोधी हैं—अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचों से नोचते हैं ॥ १० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌺💖🌹🥀जय श्रीकृष्ण🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
नारायण नारायण नारायण नारायण