॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन
यं वै विभूतिरुपयात्यनुवेलमन्यैः
अर्थार्थिभिः स्वशिरसा धृतपादरेणुः ।
धन्यार्पिताङ्घ्रितुलसीनवदामधाम्नो
लोकं मधुव्रतपतेरिव कामयाना ॥ २० ॥
यस्तां विविक्तचरितैः अनुवर्तमानां
नात्याद्रियत्परमभागवतप्रसङ्गः ।
स त्वं द्विजानुपथपुण्यरजः पुनीतः
श्रीवत्सलक्ष्म किमगा भगभाजनस्त्वम् ॥ २१ ॥
(सनकादि मुनि श्रीभगवान्से कह रहे हैं) भगवन् ! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरण-रज को सर्वदा अपने मस्तकपर धारण करते हैं, वे लक्ष्मी जी निरन्तर आपकी सेवा में लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणों पर जो नूतन तुलसी की मालाएँ अर्पण करते हैं, उन पर गुंजार करते हुए भौंरों के समान वे भी आपके पादपद्मों को ही अपना निवासस्थान बनाना चाहती हैं ॥ २० ॥ किन्तु अपने पवित्र चरित्रों से निरन्तर सेवा में तत्पर रहनेवाली उन लक्ष्मीजी का भी आप विशेष आदर नहीं करते, आप तो अपने भक्तों से ही विशेष प्रेम रखते हैं। आप स्वयं ही सम्पूर्ण भजनीय गुणों के आश्रय हैं; क्या जहाँ-तहाँ विचरते हुए ब्राह्मणों के चरणों में लगने से पवित्र हुई मार्ग की धूलि और श्रीवत्स का चिह्न आपको पवित्र कर सकते हैं ? क्या इनसे आपकी शोभा बढ़ सकती है ? ॥ २१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
💖🌹🥀🌺जय श्रीकृष्ण🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
नारायण नारायण नारायण नारायण