॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन
श्रीभगवानुवाच -
एतौ सुरेतरगतिं प्रतिपद्य सद्यः
संरम्भसम्भृतसमाध्यनुबद्धयोगौ ।
भूयः सकाशमुपयास्यत आशु यो वः
शापो मयैव निमितस्तदवेत विप्राः ॥ २६ ॥
ब्रह्मोवाच -
अथ ते मुनयो दृष्ट्वा नयनानन्दभाजनम् ।
वैकुण्ठं तदधिष्ठानं विकुण्ठं च स्वयंप्रभम् ॥ २७ ॥
भगवन्तं परिक्रम्य प्रणिपत्यानुमान्य च ।
प्रतिजग्मुः प्रमुदिताः शंसन्तो वैष्णवीं श्रियम् ॥ २८ ॥
भगवाननुगावाह यातं मा भैष्टमस्तु शम् ।
ब्रह्मतेजः समर्थोऽपि हन्तुं नेच्छे मतं तु मे ॥ २९ ॥
श्रीभगवान्ने कहा—मुनिगण ! आपने इन्हें जो शाप दिया है—सच जानिये, वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। अब ये शीघ्र ही दैत्ययोनि को प्राप्त होंगे और वहाँ क्रोधावेश से बढ़ी हुई एकाग्रता के कारण सुदृढ़ योगसम्पन्न होकर फिर जल्दी ही मेरे पास लौट आयेंगे ॥ २६ ॥
श्रीब्रह्मा जी कहते हैं—तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने नयनाभिराम भगवान् विष्णु और उनके स्वयंप्रकाश वैकुण्ठ-धाम के दर्शन करके प्रभु की परिक्रमा की और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी आज्ञा पा भगवान् के ऐश्वर्यका वर्णन करते हुए प्रमुदित हो वहाँ से लौट गये ॥ २७-२८ ॥ फिर भगवान् ने अपने अनुचरों से कहा, ‘जाओ, मन में किसी प्रकारका भय मत करो; तुम्हारा कल्याण होगा । मैं सब कुछ करने में समर्थ होकर भी ब्रह्मतेज को मिटाना नहीं चाहता; क्योंकि ऐसा ही मुझे अभिमत भी है ॥ २९ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀🌺जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण