॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान् का युद्ध
स तुद्यमानोऽरिदुरुक्ततोमरैः
दंष्ट्राग्रगां गां उपलक्ष्य भीताम् ।
तोदं मृषन् निरगाद् अम्बुमध्याद्
ग्राहाहतः सकरेणुर्यथेभः ॥ ६ ॥
तं निःसरन्तं सलिलाद् अनुद्रुतो
हिरण्यकेशो द्विरदं यथा झषः ।
करालदंष्ट्रोऽशनिनिस्वनोऽब्रवीद्
गतह्रियां किं त्वसतां विगर्हितम् ॥ ७ ॥
स गां उदस्तात् सलिलस्य गोचरे
विन्यस्य तस्यां अदधात् स्वसत्त्वम् ।
अभिष्टुतो विश्वसृजा प्रसूनैः
आपूर्यमाणो विबुधैः पश्यतोऽरेः ॥ ८ ॥
परानुषक्तं तपनीयोपकल्पं
महागदं काञ्चनचित्रदंशम् ।
मर्माण्यभीक्ष्णं प्रतुदन्तं दुरुक्तैः
प्रचण्डमन्युः प्रहसन् तं बभाषे ॥ ९ ॥
हिरण्याक्ष भगवान् को दुर्वचन-बाणों से छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँतकी नोकपर स्थित पृथ्वीको भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जलसे उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनीसहित गजराज ॥ ६ ॥ जब उसकी चुनौतीका कोई उत्तर न देकर वे जलसे बाहर आने लगे, तब ग्राह जैसे गज का पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ों वाले उस दैत्यने उनका पीछा किया तथा वज्रके समान कडक़कर वह कहने लगा, ‘तुझे भागनेमें लज्जा नहीं आती ? सच है, असत् पुरुषों के लिये कौन-सा काम न करने योग्य है ?’ ॥ ७ ॥
भगवान् ने पृथ्वी को ले जाकर जल के ऊपर व्यवहार-योग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्ति का सञ्चार किया। उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति की और देवताओंने फूल बरसाये ॥ ८ ॥ तब श्रीहरिने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्ष से, जो सोनेके आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्योंसे उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक हँसते हुए कहा ॥ ९ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀 जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!