॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
एवं गदाभ्यां गुर्वीभ्यां हर्यक्षो हरिरेव च ।
जिगीषया सुसंरब्धौ अन्योन्यं अभिजघ्नतुः ॥ १८ ॥
तयोः स्पृधोस्तिग्मगदाहताङ्गयोः
क्षतास्रवघ्राणविवृद्धमन्य्वोः ।
विचित्रमार्गांश्चरतोर्जिगीषया
व्यभादिलायामिव शुष्मिणोर्मृधः ॥ १९ ॥
दैत्यस्य यज्ञावयवस्य माया
गृहीतवाराहतनोर्महात्मनः ।
कौरव्य मह्यां द्विषतोर्विमर्दनं
दिदृक्षुरागाद् ऋषिभिर्वृतः स्वराट् ॥ २० ॥
आसन्नशौण्डीरमपेतसाध्वसं
कृतप्रतीकारमहार्यविक्रमम् ।
विलक्ष्य दैत्यं भगवान् सहस्रणीः
जगाद नारायणमादिसूकरम् ॥ २१ ॥
इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे ॥ १८ ॥ उस समय उन दोनों में ही जीतने की होड़ लग गयी, दोनों के ही अङ्ग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे, अपने अङ्गों के घावों से बहने वाले रुधिर की गन्ध से दोनोंका ही क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरहके पैंतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौके लिये आपसमें लडऩेवाले दो साँड़ोंके समान उन दोनोंमें एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ ॥ १९ ॥ विदुरजी ! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और मायासे वराहरूप धारण करनेवाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वीके लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखनेके लिये वहाँ ऋषियोंके सहित ब्रह्माजी आये ॥ २० ॥ वे हजारों ऋषियोंसे घिरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भयका नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करनेमें भी समर्थ है और उसके पराक्रमको चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान् आदिसूकररूप नारायण से इस प्रकार कहने लगे ॥ २१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
💐💖🌹🥀जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण