॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
हिरण्याक्ष-वध
मैत्रेय उवाच –
अवधार्य विरिञ्चस्य निर्व्यलीकामृतं वचः ।
प्रहस्य प्रेमगर्भेण तदपाङ्गेन सोऽग्रहीत् ॥ १ ॥
ततः सपत्नंर मुखतः चरन्तं अकुतोभयम् ।
जघानोत्पत्य गदया हनौ अवसुरमक्षजः ॥ २ ॥
सा हता तेन गदया विहता भगवत्करात् ।
विघूर्णित अपतद् रेजे तदद्भुकतं इवाभवत् ॥ ३ ॥
स तदा लब्धतीर्थोऽपि न बबाधे निरायुधम् ।
मानयन् स मृधे धर्मं विष्वक्सेनं प्रकोपयन् ॥ ४ ॥
गदायां अपविद्धायां हाहाकारे विनिर्गते ।
मानयामास तद् धर्मं सुनाभं चास्मरद्विभुः ॥ ५ ॥
तं व्यग्रचक्रं दितिपुत्राधमेन
स्वपार्षदमुख्येन विषज्जमानम् ।
चित्रा वाचोऽतद्विदां खेचराणां
तत्रास्मासन् स्वस्ति तेऽमुं जहीति ॥ ६ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! ब्रह्माजी के ये कपटरहित अमृतमय वचन सुनकर भगवान् ने उनके भोलेपनपर मुसकराकर अपने प्रेमपूर्ण कटाक्षके द्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ॥ १ ॥ फिर उन्होंने झपटकर अपने सामने निर्भय विचरते हुए शत्रुकी ठुड्डीपर गदा मारी। किन्तु हिरण्याक्षकी गदासे टकराकर वह गदा भगवान्के हाथसे छूट गयी और चक्कर काटती हुई जमीनपर गिरकर सुशोभित हुई। किन्तु यह बड़ी अद्भुत-सी घटना हुई ॥ २-३ ॥ उस समय शत्रुपर वार करनेका अच्छा अवसर पाकर भी हिरण्याक्ष ने उन्हें निरस्त्र देखकर युद्धधर्म का पालन करते हुए उनपर आक्रमण नहीं किया। उसने भगवान् का क्रोध बढ़ाने के लिये ही ऐसा किया था ॥ ४ ॥ गदा गिर जाने पर और लोगों का हाहाकार बंद हो जाने पर प्रभु ने उसकी धर्मबुद्धि की प्रशंसा की और अपने सुदर्शनचक्र का स्मरण किया ॥ ५ ॥ चक्र तुरंत ही उपस्थित होकर भगवान् के हाथमें घूमने लगा। किन्तु वे अपने प्रमुख पार्षद दैत्याधम हिरण्याक्ष के साथ विशेषरूप से क्रीडा करने लगे। उस समय उनके प्रभाव को न जाननेवाले देवताओंके ये विचित्र वचन सुनायी देने लगे—‘प्रभो ! आपकी जय हो; इसे और न खेलाइये, शीघ्र ही मार डालिये’ ॥ ६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌺💖💐🌺जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
कृष्णायवासुदेवाय हरयेपरमात्मने
प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः 🙏 नारायण नारायण नारायण नारायण