॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
हिरण्याक्ष-वध
स्वपौरुषे प्रतिहते हतमानो महासुरः ।
नैच्छद्गदां दीयमानां हरिणा विगतप्रभः ॥ १२ ॥
जग्राह त्रिशिखं शूलं ज्वलज्ज्वलनलोलुपम् ।
यज्ञाय धृतरूपाय विप्रायाभिचरन् यथा ॥ १३ ॥
तदोजसा दैत्यमहाभटार्पितं
चकासदन्तःख उदीर्णदीधिति ।
चक्रेण चिच्छेद निशातनेमिना
हरिर्यथा तार्क्ष्यपतत्रमुज्झितम् ॥ १४ ॥
वृक्णे स्वशूले बहुधारिणा हरेः
प्रत्येत्य विस्तीर्णमुरो विभूतिमत् ।
प्रवृद्धरोषः स कठोरमुष्टिना
नदन् प्रहृत्यान्तरधीयतासुरः ॥ १५ ॥
अपने उद्यमको इस प्रकार व्यर्थ हुआ देख उस महादैत्य का घमंड ठंडा पड़ गया और उसका तेज नष्ट हो गया। अब की बार भगवान् के देने पर उसने उस गदाको लेना न चाहा ॥ १२ ॥ किन्तु जिस प्रकार कोई ब्राह्मणके ऊपर निष्फल अभिचार (मारणादि प्रयोग) करे—मूठ आदि चलाये, वैसे ही उसने श्रीयज्ञपुरुषपर प्रहार करनेके लिये एक प्रज्वलित अग्नि के समान लपलपाता हुआ त्रिशूल लिया ॥ १३ ॥ महाबली हिरण्याक्षका अत्यन्त वेगसे छोड़ा हुआ वह तेजस्वी त्रिशूल आकाशमें बड़ी तेजीसे चमकने लगा। तब भगवान्ने उसे अपनी तीखी धारवाले चक्रसे इस प्रकार काट डाला, जैसे इन्द्रने गरुडजीके छोड़े हुए तेजस्वी पंखको काट डाला था [*] ॥ १४ ॥ भगवान् के चक्रसे अपने त्रिशूल के बहुत-से टुकड़े हुए देखकर उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने पास आकर उनके विशाल वक्ष:स्थलपर, जिसपर श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है, कसकर घूँसा मारा और फिर बड़े जोर से गरजकर अन्तर्धान हो गया ॥ १५ ॥
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[*] एक बार गरुडजी अपनी माता विनता को सर्पों की माता कद्रू के दासीपने से मुक्त करने के लिये देवताओं के पाससे अमृत छीन लाये थे। तब इन्द्रने उनके ऊपर अपना वज्र छोड़ा। इन्द्र का वज्र कभी व्यर्थ नहीं जाता, इसलिये उसका मान रखने के लिये गरुडजी ने अपना एक पर गिरा दिया। उसे उस वज्र ने काट डाला।
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖💐🌺जय श्रीहरि:🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
हरि हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः
गोपाल गोविंद राम श्री मधुसूदन: