॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
हिरण्याक्ष-वध
विनष्टासु स्वमायासु भूयश्चाव्रज्य केशवम् ।
रुषोपगूहमानोऽमुं ददृशेऽवस्थितं बहिः ॥ २४ ॥
तं मुष्टिभिर्विनिघ्नन्तं वज्रसारैः अधोक्षजः ।
करेण कर्णमूलेऽहन् यथा त्वाष्ट्रं मरुत्पतिः ॥ २५ ॥
स आहतो विश्वजिता ह्यवज्ञया
परिभ्रमद्गात्र उदस्तलोचनः ।
विशीर्णबाह्वङ्घ्रिशिरोरुहोऽपतद्
यथा नगेन्द्रो लुलितो नभस्वता ॥ २६ ॥
क्षितौ शयानं तमकुण्ठवर्चसं
करालदंष्ट्रं परिदष्टदच्छदम् ।
अजादयो वीक्ष्य शशंसुरागता
अहो इमं को नु लभेत संस्थितिम् ॥ २७ ॥
यं योगिनो योगसमाधिना रहो
ध्यायन्ति लिङ्गादसतो मुमुक्षया ।
तस्यैष दैत्यऋषभः पदाहतो
मुखं प्रपश्यन् तनुमुत्ससर्ज ह ॥ २८ ॥
एतौ तौ पार्षदावस्य शापाद् यातौ असद्गतिम् ।
पुनः कतिपयैः स्थानं प्रपत्स्येते ह जन्मभिः ॥ २९ ॥
अपना माया-जाल नष्ट हो जाने पर वह दैत्य फिर भगवान् के पास आया। उसने उन्हें क्रोध से दबाकर चूर-चूर करने की इच्छा से भुजाओं में भर लिया, किन्तु देखा कि वे तो बाहर ही खड़े हैं ॥ २४ ॥ अब वह भगवान् को वज्र के समान कठोर मुक्कों से मारने लगा । तब इन्द्र ने जैसे वृत्रासुरपर प्रहार किया था, उसी प्रकार भगवान् ने उसकी कनपटी पर एक तमाचा मारा॥२५॥ विश्वविजयी भगवान् ने यद्यपि बड़ी उपेक्षा से तमाचा मारा था, तो भी उसकी चोटसे हिरण्याक्ष का शरीर घूमने लगा, उसके नेत्र बाहर निकल आये तथा हाथ-पैर और बाल छिन्न-भिन्न हो गये और वह निष्प्राण होकर आँधी से उखड़े हुए विशाल वृक्ष के समान पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २६ ॥ हिरण्याक्ष का तेज अब भी मलिन नहीं हुआ था। उस कराल दाढ़ोंवाले दैत्य को दाँतों से होठ चबाते पृथ्वी पर पड़ा देख वहाँ युद्ध देखने के लिये आये हुए ब्रह्मादि देवता उसकी प्रशंसा करने लगे कि ‘अहो ! ऐसी अलभ्य मृत्यु किसको मिल सकती है ॥ २७ ॥ अपनी मिथ्या उपाधि से छूटने के लिये जिनका योगिजन समाधियोग के द्वारा एकान्त में ध्यान करते हैं, उन्हींके चरण-प्रहार से उनका मुख देखते-देखते इस दैत्यराज ने अपना शरीर त्यागा ॥ २८ ॥ ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान् के ही पार्षद हैं। इन्हें शापवश यह अधोगति प्राप्त हुई है। अब कुछ जन्मों में ये फिर अपने स्थानपर पहुँच जायँगे’ ॥ २९ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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नारायण नारायण नारायण नारायण