शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

कपिल उवाच –

तस्यैतस्य जनो नूनं नायं वेदोरुविक्रमम् ।
काल्यमानोऽपि बलिनो वायोरिव घनावलिः ॥ १ ॥
यं यं अर्थमुपादत्ते दुःखेन सुखहेतवे ।
तं तं धुनोति भगवान् पुमान्छोचति यत्कृते ॥ २ ॥
यदध्रुवस्य देहस्य सानुबन्धस्य दुर्मतिः ।
ध्रुवाणि मन्यते मोहाद् गृहक्षेत्रवसूनि च ॥ ३ ॥
जन्तुर्वै भव एतस्मिन् यां यां योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां तस्यां स लभते निर्वृतिं न विरज्यते ॥ ४ ॥
नरकस्थोऽपि देहं वै न पुमान् त्यक्तुमिच्छति ।
नारक्यां निर्वृतौ सत्यां देवमायाविमोहितः ॥ ५ ॥

कपिलदेवजी कहते हैं—माताजी ! जिस प्रकार वायुके द्वारा उड़ाया जानेवाला मेघसमूह उसके बलको नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् कालकी प्रेरणासे भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियोंमें भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके प्रबल पराक्रमको नहीं जानता ॥ १ ॥ जीव सुखकी अभिलाषा से जिस-जिस वस्तु को बड़े कष्टसे प्राप्त करता है, उसी-उसीको भगवान्‌ काल विनष्ट कर देता है—जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है ॥ २ ॥ इसका कारण यही है कि यह मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों के घर, खेत और धन आदि को मोहवश नित्य मान लेता है ॥ ३ ॥ इस संसार में यह जीव जिस-जिस योनि में जन्म लेता है, उसी-उसीमें आनन्द मानने लगता है और उससे विरक्त नहीं होता ॥ ४ ॥ यह भगवान्‌ की माया से ऐसा मोहित हो रहा है कि कर्मवश नारकी योनियों में जन्म लेनेपर भी वहाँ के विष्ठा आदि भोगों में ही सुख माननेके कारण उसे भी छोडऩा नहीं चाहता ॥ ५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀जय श्री हरि: !!🙏
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    जय हो द्वारकानाथ गोविंद
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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