॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन
येनेदृशीं गतिमसौ दशमास्य ईश
सङ्ग्राहितः पुरुदयेन भवादृशेन ।
स्वेनैव तुष्यतु कृतेन स दीननाथः
को नाम तत्प्रति विनाञ्जलिमस्य कुर्यात् ॥ १८ ॥
पश्यत्ययं धिषणया ननु सप्तवध्रिः
शारीरके दमशरीर्यपरः स्वदेहे ।
यत्सृष्टयाऽऽसं तमहं पुरुषं पुराणं
पश्ये बहिर्हृदि च चैत्यमिव प्रतीतम् ॥ १९ ॥
स्वामिन् ! आप बड़े दयालु हैं, आप-जैसे उदार प्रभुने ही इस दस मासके जीवको ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है। दीनबन्धो ! इस अपने किये हुए उपकारसे ही आप प्रसन्न हों; क्योंकि आपको हाथ जोडऩेके सिवा आपके उस उपकारका बदला तो कोई दे भी क्या सकता है ॥ १८ ॥
प्रभो ! संसारके ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धिके अनुसार अपने शरीरमें होनेवाले सुख-दु:खादिका ही अनुभव करते हैं; किन्तु मैं तो आपकी कृपासे शम-दमादि साधनसम्पन्न शरीरसे युक्त हुआ हूँ, अत: आपकी दी हुई विवेकवती बुद्धिसे आप पुराणपुरुष को अपने शरीर के बाहर और भीतर अहंकार के आश्रयभूत आत्मा की भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ ॥ १९ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
जवाब देंहटाएंहे नाथ नारायण वासुदेव: !!
हरि:शरणम् !! हरि:शरणम् !!
हरि:शरणम् !!💟🌹🕉️