शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

रुद्र उवाच -
तव वरद वराङ्‌घ्रावाशिषेहाखिलार्थे
     ह्यपि मुनिभिरसक्तैरादरेणार्हणीये ।
यदि रचितधियं माविद्यलोकोऽपविद्धं
     जपति न गणये तत्त्वत्परानुग्रहेण ॥ २९ ॥

भृगुरुवाच -
यन्मायया गहनयापहृतात्मबोधा
     ब्रह्मादयस्तनुभृतस्तमसि स्वपन्तः ।
नात्मन्श्रितं तव विदन्त्यधुनापि तत्त्वं
     सोऽयं प्रसीदतु भवान्प्रणतात्मबन्धुः ॥ ३० ॥

ब्रह्मोवाच -
नैतत्स्वरूपं भवतोऽसौ पदार्थ
     भेदग्रहैः पुरुषो यावदीक्षेत् ।
ज्ञानस्य चार्थस्य गुणस्य चाश्रयो
     मायामयाद् व्यतिरिक्तो मतस्त्वम् ॥ ३१ ॥

इन्द्र उवाच -
इदमप्यच्युत विश्वभावनं
     वपुरानन्दकरं मनोदृशाम् ।
सुरविद्विट्क्षपणैरुदायुधैः
     भुजदण्डैरुपपन्नमष्टभिः ॥ ३२ ॥

पत्न्य् ऊचुः -
यज्ञोऽयं तव यजनाय केन सृष्टो
     विध्वस्तः पशुपतिनाद्य दक्षकोपात् ।
तं नस्त्वं शवशयनाभशान्तमेधं
     यज्ञात्मन्नलिनरुचा दृशा पुनीहि ॥ ३३ ॥

ऋषय ऊचुः -
अनन्वितं ते भगवन् विचेष्टितं
     यदात्मना चरसि हि कर्म नाज्यसे ।
विभूतये यत उपसेदुरीश्वरीं
     न मन्यते स्वयमनुवर्ततीं भवान् ॥ ३४ ॥

(श्रीहरि को) रुद्रने कहा—वरदायक प्रभो ! आपके उत्तम चरण इस संसारमें सकाम पुरुषोंको सम्पूर्ण पुरुषार्थोंकी प्राप्ति करानेवाले हैं; और जिन्हें किसी भी वस्तुकी कामना नहीं है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक पूजन करते हैं। उनमें चित्त लगा रहनेके कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे आचरण भ्रष्ट कहते हैं, तो कहें; आपके परम अनुग्रहसे मैं उनके कहने-सुननेका कोई विचार नहीं करता ॥ २९ ॥
भृगुजीने कहा—आपकी गहन मायासे आत्मज्ञान लुप्त हो जानेके कारण जो अज्ञान-निद्रामें सोये हुए हैं, वे ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञानमें उपयोगी आपके तत्त्वको अभीतक नहीं जान सके। ऐसे होनेपर भी आप अपने शरणागत भक्तोंके तो आत्मा और सुहृद् हैं; अत: आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ ३० ॥
ब्रह्माजीने कहा—प्रभो ! पृथक्-पृथक् पदार्थोंको जाननेवाली इन्द्रियोंके द्वारा पुरुष जो कुछ देखता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि आप ज्ञान, शब्दादि विषय और श्रोत्रादि इन्द्रियोंके अधिष्ठान हैं—ये सब आपमें अध्यस्त हैं। अतएव आप इस मायामय प्रपञ्चसे सर्वथा अलग हैं ॥ ३१ ॥
इन्द्रने कहा—अच्युत ! आपका यह जगत्को प्रकाशित करनेवाला रूप देवद्रोहियोंका संहार करनेवाली आठ भुजाओंसे सुशोभित है, जिनमें आप सदा ही नाना प्रकारके आयुध धारण किये रहते हैं। यह रूप हमारे मन और नेत्रोंको परम आनन्द देनेवाला है ॥ ३२ ॥
याज्ञिकोंकी पत्नियोंने कहा—भगवन् ! ब्रह्माजीने आपके पूजनके लिये ही इस यज्ञकी रचना की थी; परन्तु दक्षपर कुपित होनेके कारण इसे भगवान्‌ पशुपतिने अब नष्ट कर दिया है। यज्ञमूर्ते ! श्मशानभूमि के समान उत्सवहीन हुए हमारे उस यज्ञको आप नील कमलकी-सी कान्तिवाले अपने नेत्रोंसे निहारकर पवित्र कीजिये ॥ ३३ ॥
ऋषियोंने कहा—भगवन् ! आपकी लीला बड़ी ही अनोखी है; क्योंकि आप कर्म करते हुए भी उनसे निर्लेप रहते हैं। दूसरे लोग वैभवकी भूखसे जिन लक्ष्मीजीकी उपासना करते हैं, वे स्वयं आपकी सेवामें लगी रहती हैं;तो भी आप उनका मान नहीं करते, उनसे नि:स्पृह रहते हैं ॥ ३४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 💐💖💐जय श्रीहरि: !!🙏
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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