शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०९)

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ध्रुवका वन-गमन

नारद उवाच -
मा मा शुचः स्वतनयं देवगुप्तं विशाम्पते ।
तत्प्रभावं अविज्ञाय प्रावृङ्‌क्ते यद्यशो जगत् । ॥ ६८ ॥
सुदुष्करं कर्म कृत्वा लोकपालैरपि प्रभुः ।
ऐष्यत्यचिरतो राजन् यशो विपुलयंस्तव । ॥ ६९ ॥

मैत्रेय उवाच -
इति देवर्षिणा प्रोक्तं विश्रुत्य जगतीपतिः ।
राजलक्ष्मीमनादृत्य पुत्रं एवान्वचिन्तयत् ॥ ७० ॥
तत्राभिषिक्तः प्रयतः तां उपोष्य विभावरीम् ।
समाहितः पर्यचर दृष्यादेशेन पूरुषम् ॥ ७१ ॥
त्रिरात्रान्ते त्रिरात्रान्ते कपित्थबदराशनः ।
आत्मवृत्त्यनुसारेण मासं निन्येऽर्चयन् हरिम् ॥ ७२ ॥
द्वितीयं च तथा मासं षष्ठे षष्ठेऽर्भको दिने ।
तृणपर्णादिभिः शीर्णैः कृतान्नोऽभ्यर्चयन् विभुम् ॥ ७३ ॥
तृतीयं चानयन् मासं नवमे नवमेऽहनि ।
अब्भक्ष उत्तमश्लोकं उपाधावत्समाधिना ॥ ७४ ॥
चतुर्थमपि वै मासं द्वादशे द्वादशेऽहनि ।
वायुभक्षो जितश्वासो ध्यायन् देवमधारयत् ॥ ७५ ॥
पञ्चमे मास्यनुप्राप्ते जितश्वासो नृपात्मजः ।
ध्यायन् ब्रह्म पदैकेन तस्थौ स्थाणुरिवाचलः ॥ ७६ ॥
सर्वतो मन आकृष्य हृदि भूतेन्द्रियाशयम् ।
ध्यायन् भगवतो रूपं नाद्राक्षीत् किंचनापरम् ॥ ७७ ॥
आधारं महदादीनां प्रधानपुरुषेश्वरम् ।
ब्रह्म धारयमाणस्य त्रयो लोकाश्चकम्पिरे ॥ ७८ ॥
यदैकपादेन स पार्थिवार्भकः
     तस्थौ तदङ्‌गुष्ठनिपीडिता मही ।
ननाम तत्रार्धमिभेन्द्रधिष्ठिता
     तरीव सव्येतरतः पदे पदे ॥ ७९ ॥
तस्मिन् अभिध्यायति विश्वमात्मनो
     द्वारं निरुध्यासमनन्यया धिया ।
लोका निरुच्छ्वासनिपीडिता भृशं
     सलोकपालाः शरणं ययुर्हरिम् ॥ ८० ॥

देवा ऊचुः -
नैवं विदामो भगवन् प्राणरोधं
     चराचरस्याखिलसत्त्वधाम्नः ।
विधेहि तन्नो वृजिनाद्विमोक्षं
     प्राप्ता वयं त्वां शरणं शरण्यम् ॥ ८१ ॥

श्रीभगवानुवाच -
मा भैष्ट बालं तपसो दुरत्ययान्
     निवर्तयिष्ये प्रतियात स्वधाम ।
यतो हि वः प्राणनिरोध आसीत्
     औत्तानपादिर्मयि सङ्‌गतात्मा ॥ ८२ ॥

श्रीनारदजीने (राजा उत्तानपाद को)  कहा—राजन् ! तुम अपने बालककी चिन्ता मत करो। उसके रक्षक भगवान्‌ हैं। तुम्हें उसके प्रभावका पता नहीं है, उसका यश सारे जगत् में  फैल रहा है ॥ ६८ ॥ वह बालक बड़ा समर्थ है। जिस कामको बड़े-बड़े लोकपाल भी नहीं कर सके, उसे पूरा करके वह शीघ्र ही तुम्हारे पास लौट आयेगा। उसके कारण तुम्हारा यश भी बहुत बढ़ेगा ॥ ६९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—देवर्षि नारदजी की बात सुनकर महाराज उत्तानपाद राजपाट की ओर से उदासीन होकर निरन्तर पुत्र की ही चिन्तामें रहने लगे ॥ ७० ॥ इधर ध्रुवजीने मधुवन में पहुँचकर यमुनाजीमें स्नान किया और उस रात पवित्रतापूर्वक उपवास करके श्रीनारदजीके उपदेशानुसार एकाग्रचित्तसे परमपुरुष श्रीनारायणकी उपासना आरम्भ कर दी ॥ ७१ ॥ उन्होंने तीन-तीन रात्रिके अन्तरसे शरीरनिर्वाहके लिये केवल कैथ और बेरके फल खाकर श्रीहरिकी उपासना करते हुए एक मास व्यतीत किया ॥ ७२ ॥ दूसरे महीनेमें उन्होंने छ:-छ: दिनके पीछे सूखे घास और पत्ते खाकर भगवान्‌का भजन किया ॥ ७३ ॥ तीसरा महीना नौ-नौ दिनपर केवल जल पीकर समाधियोगके द्वारा श्रीहरिकी आराधना करते हुए बिताया ॥ ७४ ॥ चौथे महीनेमें उन्होंने श्वासको जीतकर बारह-बारह दिनके बाद केवल वायु पीकर ध्यानयोगद्वारा भगवान्‌की आराधनाकी ॥ ७५ ॥ पाँचवाँ मास लगनेपर राजकुमार ध्रुव श्वासको जीतकर परब्रह्मका चिन्तन करते हुए एक पैरसे खंभेके समान निश्चल भावसे खड़े हो गये ॥ ७६ ॥ उस समय उन्होंने शब्दादि विषय और इन्द्रियोंके नियामक अपने मनको सब ओरसे खींच लिया तथा हृदयस्थित हरिके स्वरूपका चिन्तन करते हुए चित्तको किसी दूसरी ओर न जाने दिया ॥ ७७ ॥ जिस समय उन्होंने महदादि सम्पूर्ण तत्त्वोंके आधार तथा प्रकृति और पुरुषके भी अधीश्वर परब्रह्मकी धारणा की, उस समय (उनके तेजको न सह सकनेके कारण) तीनों लोक काँप उठे ॥ ७८ ॥ जब राजकुमार ध्रुव एक पैरसे खड़े हुए, तब उनके अँगूठेसे दबकर आधी पृथ्वी इस प्रकार झुक गयी, जैसे किसी गजराजके चढ़ जानेपर नाव पद-पदपर दायीं-बायीं ओर डगमगाने लगती है ॥ ७९ ॥ ध्रुवजी अपने इन्द्रियद्वार तथा प्राणोंको रोककर अनन्यबुद्धिसे विश्वात्मा श्रीहरिका ध्यान करने लगे। इस प्रकार उनकी समष्टि प्राणसे अभिन्नता हो जानेके कारण सभी जीवोंका श्वासप्रश्वास रुक गया। इससे समस्त लोक और लोकपालोंको बड़ी पीड़ा हुई और वे सब घबराकर श्रीहरिकी शरणमें गये ॥ ८० ॥
देवताओंने कहा—भगवन् ! समस्त स्थावर-जङ्गम जीवों के शरीरों का प्राण एक साथ ही रुक गया है—ऐसा तो हमने पहले कभी अनुभव नहीं किया। आप शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले हैं, अपनी शरणमें आये हुए हमलोगोंको इस दु:खसे छुड़ाइये ॥ ८१ ॥
श्रीभगवान्‌ ने कहा—देवताओ ! तुम डरो मत। उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने अपने चित्त को मुझ विश्वात्मा में लीन कर दिया है, इस समय मेरे साथ उसकी अभेद-धारणा सिद्ध हो गयी है, इसीसे उसके प्राणनिरोधसे तुम सबका प्राण भी रुक गया है। अब तुम अपने-अपने लोकों को जाओ, मैं उस बालक को इस दुष्कर तपसे निवृत्त कर दूँगा ॥ ८२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवचरिते अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀 ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    हे विश्वात्मा हे नाथ नारायण
    आपका हर क्षण सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: चरण वंदन 🙏
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!

    जवाब देंहटाएं

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७) ध्रुवका वर पाकर घर लौटना विदुर उवाच - सुदुर्लभं यत्पर...