॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
त्वं नित्यमुक्तपरिशुद्धविबुद्ध आत्मा
कूटस्थ आदिपुरुषो भगवान् त्र्यधीशः ।
यद्बुनद्ध्यवस्थितिमखण्डितया स्वदृष्ट्या
द्रष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से ॥ १५ ॥
यस्मिन् विरुद्धगतयो ह्यनिशं पतन्ति
विद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात् ।
तद्ब्र्ह्म विश्वभवमेकमनन्तमाद्यम्
आनन्दमात्रमविकारमहं प्रपद्ये ॥ १६ ॥
सत्याशिषो हि भगवन् तव पादपद्मम्
आशीस्तथानुभजतः पुरुषार्थमूर्तेः ।
अप्येवमर्य भगवान्परिपाति दीनान्
वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोऽस्मान् ॥ १७ ॥
(ध्रुवजी श्रीहरि की स्तुति कर रहे हैं) प्रभो ! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टिसे बुद्धिकी सभी अवस्थाओंके साक्षी हैं तथा नित्य- मुक्त शुद्धसत्त्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, षडैश्वर्य-सम्पन्न एवं तीनों गुणोंके अधीश्वर हैं। आप जीवसे सर्वथा भिन्न हैं तथा संसारकी स्थितिके लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूपसे विराजमान हैं ॥ १५ ॥ आपसे ही विद्या-अविद्या आदि विरुद्ध गतियोंवाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूप से निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। आप जगत् के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपकी शरण हूँ ॥ १६ ॥
भगवन् ! आप परमानन्दमूर्ति हैं—जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभावसे आपका निरन्तर भजन करते हैं, उनके लिये राज्यादि भोगों की अपेक्षा आपके चरणकमलों की प्राप्ति ही भजन का सच्चा फल है। स्वामिन् ! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंत के जन्में हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये निरन्तर विकल रहनेके कारण हम-जैसे सकाम जीवोंकी भी कामना पूर्ण करके उनकी संसार- भयसे रक्षा करते रहते हैं ॥ १७ ॥
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💖💐ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएंश्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
जय हो गिरिराजधरण जी महाराज