॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
दक्षयज्ञकी पूर्ति
मैत्रेय उवाच -
इति दक्षः कविर्यज्ञं भद्र रुद्राभिमर्शितम् ।
कीर्त्यमाने हृषीकेशे सन्निन्ये यज्ञभावने ॥ ४८ ॥
भगवान् स्वेन भागेन सर्वात्मा सर्वभागभुक् ।
दक्षं बभाष आभाष्य प्रीयमाण इवानघ ॥ ४९ ॥
श्रीभगवानुवाच -
अहं ब्रह्मा च शर्वश्च जगतः कारणं परम् ।
आत्मेश्वर उपद्रष्टा स्वयं दृगविशेषणः ॥ ५० ॥
आत्ममायां समाविश्य सोऽहं गुणमयीं द्विज ।
सृजन् रक्षन् हरन् विश्वं दध्रे संज्ञां क्रियोचिताम् ॥ ५१ ॥
तस्मिन् ब्रह्मण्यद्वितीये केवले परमात्मनि ।
ब्रह्मरुद्रौ च भूतानि भेदेनाज्ञोऽनुपश्यति ॥ ५२ ॥
यथा पुमान्न स्वाङ्गेषु शिरःपाण्यादिषु क्वचित् ।
पारक्यबुद्धिं कुरुते एवं भूतेषु मत्परः ॥ ५३ ॥
त्रयाणां एकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम् ।
सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन् स शान्तिं अधिगच्छति ॥ ५४ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—भैया विदुर ! जब इस प्रकार सब लोग यज्ञरक्षक भगवान् हृषीकेशकी स्तुति करने लगे, तब परम चतुर दक्षने रुद्रपार्षद वीरभद्रके ध्वंस किये हुए यज्ञको फिर आरम्भ कर दिया ॥ ४८ ॥ सर्वान्तर्यामी श्रीहरि यों तो सभीके भागोंके भोक्ता हैं; तथापि त्रिकपाल-पुरोडाशरूप अपने भागसे और भी प्रसन्न होकर उन्होंने दक्षको सम्बोधन करके कहा ॥ ४९ ॥
श्रीभगवान्ने कहा—जगत् का परम कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ; मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयम्प्रकाश और उपाधिशून्य हूँ ॥ ५० ॥ विप्रवर ! अपनी त्रिगुणात्मिका मायाको स्वीकार करके मैं ही जगत् की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मोंके अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर—ये नाम धारण किये हैं ॥ ५१ ॥ ऐसा जो भेदरहित विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप मैं हूँ, उसीमें अज्ञानी पुरुष ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य समस्त जीवोंको विभिन्न रूपसे देखता है ॥ ५२ ॥ जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर, हाथ आदि अङ्गोंमें ‘ये मुझसे भिन्न हैं’ ऐसी बुद्धि कभी नहीं करता, उसी प्रकार मेरा भक्त प्राणिमात्रको मुझसे भिन्न नहीं देखता ॥ ५३ ॥ ब्रह्मन् ! हम—ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर—तीनों स्वरूपत: एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीवरूप हैं; अत: जो हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है ॥ ५४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
💐💖🥀ॐश्रीपरमात्मने नमः
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श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!