॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
मैत्रेय उवाच -
अथाभिष्टुत एवं वै सत्सङ्कल्पेन धीमता ।
भृत्यानुरक्तो भगवान् प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥ १८ ॥
श्रीभगवानुवाच –
वेदाहं ते व्यवसितं हृदि राजन्यबालक ।
तत्प्रयच्छामि भद्रं ते दुरापं अपि सुव्रत ॥ १९ ॥
नान्यैरधिष्ठितं भद्र यद्भ्रा जिष्णु ध्रुवक्षिति ।
यत्र ग्रहर्क्षताराणां ज्योतिषां चक्रमाहितम् ॥ २० ॥
मेढ्यां गोचक्रवत्स्थास्नु परस्तात्कल्पवासिनाम् ।
धर्मोऽग्निः कश्यपः शुक्रो मुनयो ये वनौकसः ।
चरन्ति दक्षिणीकृत्य भ्रमन्तो यत्सतारकाः ॥ २१ ॥
प्रस्थिते तु वनं पित्रा दत्त्वा गां धर्मसंश्रयः ।
षट्त्रिंशद् वर्षसाहस्रं रक्षिताव्याहतेन्द्रियः ॥ २२ ॥
त्वद्भ्रा तर्युत्तमे नष्टे मृगयायां तु तन्मनाः ।
अन्वेषन्ती वनं माता दावाग्निं सा प्रवेक्ष्यति ॥ २३ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जब शुभ सङ्कल्पवाले मतिमान् ध्रुवजीने इस प्रकार स्तुति की तब भक्तवत्सल भगवान् उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ॥ १८ ॥
श्रीभगवान्ने कहा—उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजकुमार ! मैं तेरे हृदयका सङ्कल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पदका प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो ॥ १९ ॥
भद्र ! जिस तेजोमय अविनाशी लोकको आजतक किसीने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागणरूप ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढीके [*] चारों ओर दँवरीके बैल घूमते रहते हैं। अवान्तर कल्पपर्यन्त रहनेवाले अन्य लोकोंका नाश हो जानेपर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागणके सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ ॥ २०-२१ ॥ यहाँ भी जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वनको चले जायँगे; तब तू छत्तीस हजार वर्षतक धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करेगा। तेरी इन्द्रियोंकी शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी ॥ २२ ॥ आगे चलकर किसी समय तेरा भाई उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेममें पागल होकर उसे वनमें खोजती हुई दावानलमें प्रवेश कर जायगी ॥ २३ ॥
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[*1] कटी हुई फसल धान, गेहूँ आदिको कुचलनेके लिये घुमाये जानेवाले बैल जिस खम्भेमें बँधे रहते हैं, उसका नाम मेढी है।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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नारायण नारायण नारायण नारायण