शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

सिद्धा ऊचुः -
अयं त्वत्कथामृष्टपीयूषनद्यां
     मनोवारणः क्लेशदावाग्निदग्धः ।
तृषार्तोऽवगाढो न सस्मार दावं
     न निष्क्रामति ब्रह्मसम्पन्नवन्नः ॥ ३५ ॥

यजमान्युवाच -
स्वागतं ते प्रसीदेश तुभ्यं नमः
     श्रीनिवास श्रिया कान्तया त्राहि नः ।
त्वामृतेऽधीश नाङ्‌गैर्मखः शोभते
     शीर्षहीनः कबन्धो यथा पुरुषः ॥ ३६ ॥

लोकपाला ऊचुः -
दृष्टः किं नो दृग्भिरसद्ग्राहैस्त्वं
     प्रत्यग्द्रष्टा दृश्यते येन विश्वम् ।
माया ह्येषा भवदीया हि भूमन्
     यस्त्वं षष्ठः पञ्चभिर्भासि भूतैः ॥ ३७ ॥

योगेश्वरा ऊचुः -
प्रेयान्न तेऽन्योऽस्त्यमुतस्त्वयि प्रभो
     विश्वात्मनीक्षेन्न पृथग्य आत्मनः ।
अथापि भक्त्येश तयोपधावतां
     अनन्यवृत्त्यानुगृहाण वत्सल ॥ ३८ ॥
जगदुद्भकवस्थितिलयेषु दैवतो
     बहुभिद्यमानगुणयाऽऽत्ममायया ।
रचितात्मभेदमतये स्वसंस्थया
     विनिवर्तितभ्रमगुणात्मने नमः ॥ ३९ ॥

ब्रह्मोवाच -
नमस्ते श्रितसत्त्वाय धर्मादीनां च सूतये ।
निर्गुणाय च यत्काष्ठां नाहं वेदापरेऽपि च ॥ ४० ॥

(श्रीहरि को) सिद्धोंने कहा—प्रभो ! यह हमारा मनरूप हाथी नाना प्रकारके क्लेशरूप दावानलसे दग्ध एवं अत्यन्त तृषित होकर आपकी कथारूप विशुद्ध अमृतमयी सरितामें घुसकर गोता लगाये बैठा है। वहाँ ब्रह्मानन्दमें लीन-सा हो जानेके कारण उसे न तो संसाररूप दावानलका ही स्मरण है और न वह उस नदीसे बाहर ही निकलता है ॥ ३५ ॥
यजमानपत्नीने कहा—सर्वसमर्थ परमेश्वर ! आपका स्वागत है। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप मुझपर प्रसन्न होइये। लक्ष्मीपते ! अपनी प्रिया लक्ष्मीजीके सहित आप हमारी रक्षा कीजिये। यज्ञेश्वर ! जिस प्रकार सिरके बिना मनुष्यका धड़ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार अन्य अङ्गोंसे पूर्ण होनेपर भी आपके बिना यज्ञकी शोभा नहीं होती ॥ ३६ ॥
लोकपालोंने कहा—अनन्त परमात्मन् ! आप समस्त अन्त:करणोंके साक्षी हैं, यह सारा जगत् आपके ही द्वारा देखा जाता है। तो क्या मायिक पदार्थोंको ग्रहण करनेवाली हमारी इन नेत्र आदि इन्द्रियोंसे कभी आप प्रत्यक्ष हो सके हैं ? वस्तुत: आप हैं तो पञ्चभूतोंसे पृथक्; फिर भी पाञ्चभौतिक शरीरोंके साथ जो आपका सम्बन्ध प्रतीत होता है, यह आपकी माया ही है ॥ ३७ ॥
योगेश्वरोंने कहा—प्रभो ! जो पुरुष सम्पूर्ण विश्वके आत्मा आपमें और अपनेमें कोई भेद नहीं देखता, उससे अधिक प्यारा आपको कोई नहीं है। तथापि भक्तवत्सल ! जो लोग आपमें स्वामिभाव रखकर अनन्य भक्तिसे आपकी सेवा करते हैं, उनपर भी आप कृपा कीजिये ॥ ३८ ॥ जीवोंके अदृष्टवश जिसके सत्त्वादि गुणोंमें बड़ी विभिन्नता आ जाती है, उस अपनी मायाके द्वारा जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये ब्रह्मादि विभिन्न रूप धारण करके आप भेदबुद्धि पैदा कर देते हैं; किन्तु अपनी स्वरूप-स्थितिसे आप उस भेदज्ञान और उसके कारण सत्त्वादि गुणोंसे सर्वथा दूर हैं। ऐसे आपको हमारा नमस्कार है ॥ ३९ ॥
ब्रह्मस्वरूप वेदने कहा—आप ही धर्मादिकी उत्पत्तिके लिये शुद्ध सत्त्वको स्वीकार करते हैं, साथ ही आप निर्गुण भी हैं। अतएव आपका तत्त्व न तो मैं जानता हूँ और न ब्रह्मादि कोई और ही जानते हैं; आपको नमस्कार है ॥ ४० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


3 टिप्‍पणियां:

  1. Mera path pooja meditation karnay kaa man nahi karta kuch samy pahlay lagta thaa bahut kuch mila koi upai samadhan kary my easht is krishan bhagwan

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  2. 🌹💟🥀ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
    हरि: शरणम् ही केवलम 🙏

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  3. विश्नवे प्रभु विश्नवे

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