॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
पृथ्वी-दोहन
अपालितानादृता च भवद्भिः लोकपालकैः ।
चोरीभूतेऽथ लोकेऽहं यज्ञार्थेऽग्रसमोषधीः ॥ ७ ॥
नूनं ता वीरुधः क्षीणा मयि कालेन भूयसा ।
तत्र योगेन दृष्टेन भवानादातुमर्हति ॥ ८ ॥
वत्सं कल्पय मे वीर येनाहं वत्सला तव ।
धोक्ष्ये क्षीरमयान् कामान् अनुरूपं च दोहनम् ॥ ९ ॥
दोग्धारं च महाबाहो भूतानां भूतभावन ।
अन्नं ईप्सितमूर्जस्वद् भगवान् वाञ्छते यदि ॥ १० ॥
समां च कुरु मां राजन् देववृष्टं यथा पयः ।
अपर्तावपि भद्रं ते उपावर्तेत मे विभो ॥ ११ ॥
(पृथ्वी कह रही है) लोकरक्षक ! आप राजा लोगों ने मेरा पालन और आदर करना छोड़ दिया; इसलिये सब लोग चोरों के समान हो गये हैं। इसी से यज्ञ के लिये ओषधियों को मैंने अपने में छिपा लिया ॥ ७ ॥ अब अधिक समय हो जाने से अवश्य ही वे धान्य मेरे उदर में जीर्ण हो गये हैं; आप उन्हें पूर्वाचार्योंके बतलाये हुए उपायसे निकाल लीजिये ॥ ८ ॥ लोकपालक वीर ! यदि आपको समस्त प्राणियोंके अभीष्ट एवं बलकी वृद्धि करनेवाले अन्नकी आवश्यकता है तो आप मेरे योग्य बछड़ा, दोहनपात्र और दुहनेवालेकी व्यवस्था कीजिये; मैं उस बछड़ेके स्नेहसे पिन्हाकर दूधके रूपमें आपको सभी अभीष्ट वस्तुएँ दे दूँगी ॥ ९-१० ॥ राजन् ! एक बात और है; आपको मुझे समतल करना होगा, जिससे कि वर्षाऋतु बीत जानेपर भी मेरे ऊपर इन्द्रका बरसाया हुआ जल सर्वत्र बना रहे—मेरे भीतरकी आर्द्रता सूखने न पावे। यह आपके लिये बहुत मङ्गलकारक होगा’ ॥ ११ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀जय श्री हरि: !! 🙏
जवाब देंहटाएंश्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
नारायण नारायण हरि: !! हरि: !!