॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
उत्तम का मारा जाना, ध्रुव का यक्षों के साथ युद्ध
धनुर्विस्फूर्जयन्दिव्यं द्विषतां खेदमुद्वहन् ।
अस्त्रौघं व्यधमद्बावणैः घनानीकमिवानिलः ॥ १६ ॥
तस्य ते चापनिर्मुक्ता भित्त्वा वर्माणि रक्षसाम् ।
कायान् आविविशुस्तिग्मा गिरीन् अशनयो यथा ॥ १७ ॥
भल्लैः सञ्छिद्यमानानां शिरोभिश्चारुकुण्डलैः ।
ऊरुभिर्हेमतालाभैः दोर्भिर्वलयवल्गुभिः ॥ १८ ॥
हारकेयूरमुकुटैः उष्णीषैश्च महाधनैः ।
आस्तृतास्ता रणभुवो रेजुर्वीरमनोहराः ॥ १९ ॥
हतावशिष्टा इतरे रणाजिराद्
रक्षोगणाः क्षत्रियवर्यसायकैः ।
प्रायो विवृक्णावयवा विदुद्रुवुः
मृगेन्द्रविक्रीडितयूथपा इव ॥ २० ॥
अपश्यमानः स तदाततायिनं
महामृधे कञ्चन मानवोत्तमः ।
पुरीं दिदृक्षन्नपि नाविशद् द्विषां
न मायिनां वेद चिकीर्षितं जनः ॥ २१ ॥
इति ब्रुवंश्चित्ररथः स्वसारथिं
यत्तः परेषां प्रतियोगशङ्कितः ।
शुश्राव शब्दं जलधेरिवेरितं
नभस्वतो दिक्षु रजोऽन्वदृश्यत ॥ २२ ॥
क्षणेनाच्छादितं व्योम घनानीकेन सर्वतः ।
विस्फुरत्तडिता दिक्षु त्रासयत् स्तनयित्नुिना ॥ २३ ॥
ववृषू रुधिरौघासृक् पूयविण्मूत्रमेदसः ।
निपेतुर्गगनादस्य कबन्धान्यग्रतोऽनघ ॥ २४ ॥
ततः खेऽदृश्यत गिरिः निपेतुः सर्वतोदिशम् ।
गदापरिघनिस्त्रिंश मुसलाः साश्मवर्षिणः ॥ २५ ॥
अहयोऽशनिनिःश्वासा वमन्तोऽग्निं रुषाक्षिभिः ।
अभ्यधावन् गजा मत्ताः सिंहव्याघ्राश्च यूथशः ॥ २६ ॥
समुद्र ऊर्मिभिर्भीमः प्लावयन् सर्वतो भुवम् ।
आससाद महाह्रादः कल्पान्त इव भीषणः ॥ २७ ॥
एवंविधान्यनेकानि त्रासनान्यमनस्विनाम् ।
ससृजुस्तिग्मगतय आसुर्या माययासुराः ॥ २८ ॥
ध्रुवे प्रयुक्तामसुरैः तां मायामतिदुस्तराम् ।
निशम्य तस्य मुनयः शमाशंसन् समागताः ॥ २९ ॥
मुनय ऊचुः -
औत्तानपाद भगवान् तव शार्ङ्गधन्वा
देवः क्षिणोत्ववनतार्तिहरो विपक्षान् ।
यन्नामधेयमभिधाय निशम्य चाद्धा
लोकोऽञ्जसा तरति दुस्तरमङ्ग मृत्युम् ॥ ३० ॥
ध्रुवजीने अपने दिव्य धनुषकी टङ्कार करके शत्रुओंके दिल दहला दिये और फिर प्रचण्ड बाणोंकी वर्षा करके उनके अस्त्र-शस्त्रोंको इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे आँधी बादलोंको तितर-बितर कर देती है ॥ १६ ॥ उनके धनुषसे छूटे हुए तीखे तीर यक्ष-राक्षसोंके कवचोंको भेदकर इस प्रकार उनके शरीरोंमें घुस गये, जैसे इन्द्रके छोड़े हुए वज्र पर्वतोंमें प्रवेश कर गये थे ॥ १७ ॥ विदुरजी ! महाराज ध्रुवके बाणोंसे कटे हुए यक्षोंके सुन्दर कुण्डलमण्डित मस्तकोंसे, सुनहरी तालवृक्षके समान जाँघोंसे, वलयविभूषित बाहुओंसे, हार, भुजबन्ध, मुकुट और बहुमूल्य पगडिय़ोंसे पटी हुई वह वीरोंके मनको लुभानेवाली समरभूमि बड़ी शोभा पा रही थी ॥ १८-१९ ॥ जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बचे, वे क्षत्रियप्रवर ध्रुवजीके बाणोंसे प्राय: अंग-अंग छिन्न- भिन्न हो जानेके कारण युद्धक्रीडामें सिंहसे परास्त हुए गजराजके समान मैदान छोडक़र भाग गये ॥ २० ॥ नरश्रेष्ठ ध्रुवजीने देखा कि उस विस्तृत रणभूमिमें अब एक भी शत्रु अस्त्र-शस्त्र लिये उनके सामने नहीं है, तो उनकी इच्छा अलकापुरी देखनेकी हुई; किन्तु वे पुरीके भीतर नहीं गये ‘ये मायावी क्या करना चाहते हैं इस बातका मनुष्यको पता नहीं लग सकता’ सारथिसे इस प्रकार कहकर वे उस विचित्र रथमें बैठे रहे तथा शत्रुके नवीन आक्रमणकी आशङ्कासे सावधान हो गये। इतनेमें ही उन्हें समुद्रकी गर्जनाके समान आँधीका भीषण शब्द सुनायी दिया तथा दिशाओंमें उठती हुई धूल भी दिखायी दी ॥ २१-२२ ॥ एक क्षणमें ही सारा आकाश मेघमालासे घिर गया। सब ओर भयङ्कर गडग़ड़ाहटके साथ बिजली चमकने लगी ॥ २३ ॥ निष्पाप विदुरजी ! उन बादलोंसे खून, कफ, पीब, विष्ठा, मूत्र एवं चर्बीकी वर्षा होने लगी और ध्रुवजीके आगे आकाशसे बहुत-से धड़ गिरने लगे ॥ २४ ॥ फिर आकाशमें एक पर्वत दिखायी दिया और सभी दिशाओंमें पत्थरोंकी वर्षाके साथ गदा, परिघ, तलवार और मूसल गिरने लगे ॥ २५ ॥ उन्होंने देखा कि बहुत-से सर्प वज्रकी तरह फुफकार मारते रोषपूर्ण नेत्रोंसे आगकी चिनगारियाँ उगलते आ रहे हैं; झुंड-के-झुंड मतवाले हाथी, सिंह और बाघ भी दौड़े चले आ रहे हैं ॥ २६ ॥ प्रलयकालके समान भयङ्कर समुद्र अपनी उत्ताल तरङ्गोंसे पृथ्वीको सब ओरसे डुबाता हुआ बड़ी भीषण गर्जनाके साथ उनकी ओर बढ़ रहा है ॥ २७ ॥ क्रूरस्वभाव असुरोंने अपनी आसुरी मायासे ऐसे ही बहुत-से कौतुक दिखलाये, जिनसे कायरोंके मन काँप सकते थे ॥ २८ ॥ ध्रुवजीपर असुरोंने अपनी दुस्तर माया फैलायी है, यह सुनकर वहाँ कुछ मुनियोंने आकर उनके लिये मङ्गल कामना की ॥ २९ ॥
मुनियोंने कहा—उत्तानपादनन्दन ध्रुव ! शरणागत-भयभञ्जन शार्ङ्गपाणि भगवान् नारायण तुम्हारे शत्रुओंका संहार करें। भगवान्का तो नाम ही ऐसा है, जिसके सुनने और कीर्तन करनेमात्र से मनुष्य दुस्तर मृत्यु के मुख से अनायास ही बच जाता है ॥ ३० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌹💟🥀जय श्रीहरि: !!🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण
गोविंदाय नमो नमः 🙏🙏