मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बारहवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ध्रुवजी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति

मैत्रेय उवाच –

स राजराजेन वराय चोदितो
     ध्रुवो महाभागवतो महामतिः ।
हरौ स वव्रेऽचलितां स्मृतिं यया
     तरत्ययत्ने न दुरत्ययं तमः ॥ ८ ॥
तस्य प्रीतेन मनसा तां दत्त्वैडविडस्ततः ।
पश्यतोऽन्तर्दधे सोऽपि स्वपुरं प्रत्यपद्यत ॥ ९ ॥
अथायजत यज्ञेशं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
द्रव्यक्रियादेवतानां कर्म कर्मफलप्रदम् ॥ १० ॥
सर्वात्मनि अच्युतेऽसर्वे तीव्रौघां भक्तिमुद्वहन् ।
ददर्शात्मनि भूतेषु तं एव अवस्थितं विभुम् ॥ ११ ॥
तमेवं शीलसम्पन्नं ब्रह्मण्यं दीनवत्सलम् ।
गोप्तारं धर्मसेतूनां मेनिरे पितरं प्रजाः ॥ १२ ॥
षट्‌त्रिंशद् वर्षसाहस्रं शशास क्षितिमण्डलम् ।
भोगैः पुण्यक्षयं कुर्वन् अभोगैः अशुभक्षयम् ॥ १३ ॥
एवं बहुसवं कालं महात्माविचलेन्द्रियः ।
त्रिवर्गौपयिकं नीत्वा पुत्रायादान् नृपासनम् ॥ १४ ॥
मन्यमान इदं विश्वं मायारचितमात्मनि ।
अविद्यारचितस्वप्न गन्धर्वनगरोपमम् ॥ १५ ॥
आत्मस्त्र्यपत्यसुहृदो बलमृद्धकोशम्
     अन्तःपुरं परिविहारभुवश्च रम्याः ।
भूमण्डलं जलधिमेखलमाकलय्य
     कालोपसृष्टमिति स प्रययौ विशालाम् ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! यक्षराज कुबेरने जब इस प्रकार वर माँगनेके लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुवजीने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरिकी अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसारसागरको पार कर जाता है ॥ ८ ॥ इडविडाके पुत्र कुबेरजीने बड़े प्रसन्न मनसे उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते-ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये। इसके पश्चात् ध्रुवजी भी अपनी राजधानीको लौट आये ॥ ९ ॥ वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भगवान्‌ यज्ञपुरुषकी आराधना की; भगवान्‌ ही द्रव्य, क्रिया और देवता- सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफलके दाता भी हैं ॥ १० ॥ सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युतमें प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुवजी अपनेमें और समस्त प्राणियोंमें सर्वव्यापक श्रीहरिको ही विराजमान देखने लगे ॥ ११ ॥ ध्रुवजी बड़े ही शीलसम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादाके रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिताके समान मानती थी ॥ १२ ॥ इस प्रकार तरह-तरहके ऐश्वर्यभोगसे पुण्यका और भोगोंके त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मोंके अनुष्ठानसे पापका क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्षतक पृथ्वीका शासन किया ॥ १३ ॥ जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुवने इसी तरह अर्थ, धर्म और कामके सम्पादनमें बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया ॥ १४ ॥ इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपञ्चको अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगरके समान मायासे अपनेमें ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहारभूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका राज्य—ये सभी कालके गालमें पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रमको चले गये ॥ १५-१६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀जय श्रीहरि: !!🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!

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