॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
मैत्रेय उवाच -
पृथोस्तत्सूक्तमाकर्ण्य सारं सुष्ठु मितं मधु ।
स्मयमान इव प्रीत्या कुमारः प्रत्युवाच ह ॥ १७ ॥
सनत्कुमार उवाच -
साधु पृष्टं महाराज सर्वभूतहितात्मना ।
भवता विदुषा चापि साधूनां मतिरीदृशी ॥ १८ ॥
सङ्गमः खलु साधूनां उभयेषां च सम्मतः ।
यत्सम्भाषणसम्प्रश्नः सर्वेषां वितनोति शम् ॥ १९ ॥
अस्त्येव राजन् भवतो मधुद्विषः
     पादारविन्दस्य गुणानुवादने ।
रतिर्दुरापा विधुनोति नैष्ठिकी
     कामं कषायं मलमन्तरात्मनः ॥ २० ॥
शास्त्रेष्वियानेव सुनिश्चितो नृणां
     क्षेमस्य सध्र्यग्विमृशेषु हेतुः ।
असङ्ग आत्मव्यतिरिक्त आत्मनि
     दृढा रतिर्ब्रह्मणि निर्गुणे च या ॥ २१ ॥
सा श्रद्धया भगवद्धर्मचर्यया
     जिज्ञासयाऽऽध्यात्मिकयोगनिष्ठया ।
योगेश्वरोपासनया च नित्यं
     पुण्यश्रवःकथया पुण्यया च ॥ २२ ॥
अर्थेन्द्रियारामसगोष्ठ्यतृष्णया
     तत्सम्मतानामपरिग्रहेण च ।
विविक्तरुच्या परितोष आत्मन्
     विना हरेर्गुणपीयूषपानात् ॥ २३ ॥
अहिंसया पारमहंस्यचर्यया
     स्मृत्या मुकुन्दाचरिताग्र्यसीधुना ।
यमैरकामैर्नियमैश्चाप्यनिन्दया
     निरीहया द्वन्द्वतितिक्षया च ॥ २४ ॥
हरेर्मुहुस्तत्परकर्णपूर
     गुणाभिधानेन विजृम्भमाणया ।
भक्त्या ह्यसङ्गः सदसत्यनात्मनि
     स्यान्निर्गुणे ब्रह्मणि चाञ्जसा रतिः ॥ २५ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—राजा पृथु के ये युक्तियुक्त, गम्भीर, परिमित और मधुर वचन सुनकर श्रीसनत्कुमार जी बड़े प्रसन्न हुए और कुछ मुसकराते हुए कहने लगे ॥ १७ ॥
श्रीसनत्कुमारजीने कहा—महाराज ! आपने सब कुछ जानते हुए भी समस्त प्राणियोंके कल्याणकी दृष्टिसे बड़ी अच्छी बात पूछी है। सच है, साधुपुरुषोंकी बुद्धि ऐसी ही हुआ करती है ॥ १८ ॥ सत्पुरुषोंका समागम श्रोता और वक्ता दोनोंको ही अभिमत होता है, क्योंकि उनके प्रश्नोत्तर सभी का कल्याण करते हैं ॥ १९ ॥ राजन् ! श्रीमधुसूदन भगवान् के चरणकमलों के गुणानुवाद में अवश्य ही आपकी अविचल प्रीति है। हर किसी को इसका प्राप्त होना बहुत कठिन है और प्राप्त हो जानेपर यह हृदयके भीतर रहनेवाले उस वासनारूप मलको सर्वथा नष्ट कर देती है, जो और किसी उपायसे जल्दी नहीं छूटता ॥ २० ॥ शास्त्र जीवोंके कल्याणके लिये भलीभाँति विचार करनेवाले हैं; उनमें आत्मासे भिन्न देहादिके प्रति वैराग्य तथा अपने आत्मस्वरूप निर्गुण ब्रह्ममें सुदृढ़ अनुराग होना—यही कल्याणका साधन निश्चित किया गया है ॥ २१ ॥ शास्त्रोंका यह भी कहना है कि गुरु और शास्त्रके वचनोंमें विश्वास रखनेसे, भागवतधर्मोंका आचरण करनेसे, तत्त्वजिज्ञासासे, ज्ञानयोगकी निष्ठासे, योगेश्वर श्रीहरिकी उपासनासे, नित्यप्रति पुण्यकीर्ति श्रीभगवान्की पावन कथाओंको सुननेसे, जो लोग धन और इन्द्रियोंके भोगोंमें ही रत हैं उनकी गोष्ठीमें प्रेम न रखनेसे, उन्हें प्रिय लगनेवाले पदार्थोंका आसक्तिपूर्वक संग्रह न करनेसे, भगवद्गुणामृतका पान करनेके सिवा अन्य समय आत्मामें ही सन्तुष्ट रहते हुए एकान्तसेवनमें प्रेम रखनेसे, किसी भी जीवको कष्ट न देनेसे, निवृत्तिनिष्ठासे, आत्महितका अनुसन्धान करते रहनेसे, श्रीहरिके पवित्र चरित्ररूप श्रेष्ठ अमृतका आस्वादन करनेसे, निष्कामभावसे यम-नियमोंका पालन करनेसे, कभी किसीकी निन्दा न करनेसे, योगक्षेमके लिये प्रयत्न न करनेसे, शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको सहन करनेसे, भक्तजनोंके कानोंको सुख देनेवाले श्रीहरिके गुणोंका बार-बार वर्णन करनेसे और बढ़ते हुए भक्तिभावसे मनुष्यका कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण जड प्रपञ्चसे वैराग्य हो जाता है और आत्मस्वरूप निर्गुण परब्रह्ममें अनायास ही उसकी प्रीति हो जाती है ॥ २२—२५ ॥ 
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
❤️🥀श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
जवाब देंहटाएंहे नाथ नारायण वासुदेव: !!
हरि:शरणम् !! हरि:शरणम् !! हरि: शरणम् !!