॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
राजा पृथु की तपस्या और परलोकगमन
तस्यानया भगवतः परिकर्मशुद्ध
     सत्त्वात्मनस्तदनु संस्मरणानुपूर्त्या ।
ज्ञानं विरक्तिमदभूत् निशितेन येन
     चिच्छेद संशयपदं निजजीवकोशम् ॥ ११ ॥
छिन्नान्यधीरधिगतात्मगतिर्निरीहः
     तत्तत्यजेऽच्छिनदिदं वयुनेन येन ।
तावन्न योगगतिभिर्यतिरप्रमत्तो
     यावद्गिदाग्रजकथासु रतिं न कुर्यात् ॥ १२ ॥
एवं स वीरप्रवरः संयोज्यात्मानमात्मनि ।
ब्रह्मभूतो दृढं काले तत्याज स्वं कलेवरम् ॥ १३ ॥
सम्पीड्य पायुं पार्ष्णिभ्यां वायुमुत्सारयन् शनैः ।
नाभ्यां कोष्ठेष्ववस्थाप्य हृदुरःकण्ठशीर्षणि ॥ १४ ॥
उत्सर्पयंस्तु तं मूर्ध्नि क्रमेणावेश्य निःस्पृहः ।
वायुं वायौ क्षितौ कायं तेजस्तेजस्ययूयुजत् ॥ १५ ॥
खान्याकाशे द्रवं तोये यथास्थानं विभागशः ।
क्षितिमम्भसि तत्तेजसि अदो वायौ नभस्यमुम् ॥ १६ ॥
इन्द्रियेषु मनस्तानि तन्मात्रेषु यथोद्भ वम् ।
भूतादिनामून्युत्कृष्य महत्यात्मनि सन्दधे ॥ १७ ॥
तं सर्वगुणविन्यासं जीवे मायामये न्यधात् ।
तं चानुशयमात्मस्थं असावनुशयी पुमान् ।
नानवैराग्यवीर्येण स्वरूपस्थोऽजहात्प्रभुः ॥ १८ ॥
इस प्रकार भगवदुपासना से अन्त:करण शुद्ध सात्त्विक हो जानेपर निरन्तर भगवच्चिन्तनके प्रभावसे प्राप्त हुई इस अनन्य भक्तिसे उन्हें वैराग्यसहित ज्ञानकी प्राप्ति हुई और फिर उस तीव्र ज्ञानके द्वारा उन्होंने जीवके उपाधिभूत अहंकारको नष्ट कर दिया, जो सब प्रकारके संशय-विपर्यय का आश्रय है ॥ ११ ॥ इसके पश्चात् देहात्मबुद्धि की निवृत्ति और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण की अनुभूति होने पर अन्य सब प्रकार की सिद्धि आदि से भी उदासीन हो जाने के कारण उन्होंने उस तत्त्वज्ञान के लिये भी प्रयत्न करना छोड़ दिया, जिसकी सहायतासे पहले अपने जीवकोशका नाश किया था, क्योंकि जबतक साधकको योगमार्ग के द्वारा श्रीकृष्ण-कथामृतमें अनुराग नहीं होता, तबतक केवल योगसाधनासे उसका मोहजनित प्रमाद दूर नहीं होता—भ्रम नहीं मिटता ॥ १२ ॥ फिर जब अन्तकाल उपस्थित हुआ तो वीरवर पृथुने अपने चित्तको दृढ़तापूर्वक परमात्मामें स्थिर कर ब्रह्मभावमें स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया ॥ १३ ॥ उन्होंने एड़ीसे गुदाके द्वारको रोककर प्राणवायुको धीरे-धीरे मूलाधारसे ऊपरकी ओर उठाते हुए उसे क्रमश: नाभि, हृदय, वक्ष:स्थल, कण्ठ और मस्तकमें स्थित किया ॥ १४ ॥ फिर उसे और ऊपरकी ओर ले जाते हुए क्रमश: ब्रह्मरन्ध्रमें स्थिर किया। अब उन्हें किसी प्रकारके सांसारिक भोगोंकी लालसा नहीं रही। फिर यथास्थान विभाग करके प्राणवायुको समष्टि वायुमें, पार्थिव शरीरको पृथ्वीमें और शरीरके तेजको समष्टि तेजमें लीन कर दिया ॥ १५ ॥ हृदयाकाशादि देहावच्छिन्न आकाशको महाकाशमें और शरीरगत रुधिरादि जलीय अंशको समष्टि जलमें लीन किया। इसी प्रकार फिर पृथ्वीको जलमें, जलको तेजमें, तेजको वायुमें और वायुको आकाशमें लीन किया ॥ १६ ॥ तदनन्तर मनको [ सविकल्प ज्ञानमें जिनके अधीन वह रहता है, उन ] इन्द्रियोंमें, इन्द्रियोंको उनके कारणरूप तन्मात्राओंमें और सूक्ष्मभूतों (तन्मात्राओं) के कारण अहंकारके द्वारा आकाश, इन्द्रिय और तन्मात्राओंको उसी अहंकारमें लीन कर, अहंकारको महत्तत्त्वमें लीन किया ॥ १७ ॥ फिर सम्पूर्ण गुणोंकी अभिव्यक्ति करनेवाले उस महत्तत्त्वको मायोपाधिक जीवमें स्थित किया। तदनन्तर उस मायारूप जीवकी उपाधिको भी उन्होंने ज्ञान और वैराग्यके प्रभावसे अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूपमें स्थित होकर त्याग दिया ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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