॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश और उनका परमपद-लाभ
श्रेयसामपि सर्वेषां आत्मा ह्यवधिरर्थतः ।
सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्माऽऽत्मदः प्रियः ॥ १३ ॥
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन
तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः ।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां
तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥ १४ ॥
यथैव सूर्यात्प्रभवन्ति वारः
पुनश्च तस्मिन् प्रविशन्ति काले ।
भूतानि भूमौ स्थिरजङ्गमानि
तथा हरावेव गुणप्रवाहः ॥ १५ ॥
एतत्पदं तज्जगदात्मनः परं
सकृद्विभातं सवितुर्यथा प्रभा ।
यथासवो जाग्रति सुप्तशक्तयो
द्रव्यक्रियाज्ञानभिदाभ्रमात्ययः ॥ १६ ॥
यथा नभस्यभ्रतमःप्रकाशा
भवन्ति भूपा न भवन्त्यनुक्रमात् ।
एवं परे ब्रह्मणि शक्तयस्त्वमू
रजस्तमः सत्त्वमिति प्रवाहः ॥ १७ ॥
तेनैकमात्मानमशेषदेहिनां
कालं प्रधानं पुरुषं परेशम् ।
स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाहं
आत्मैकभावेन भजध्वमद्धा ॥ १८ ॥
(नारद जी कह रहे हैं) वास्तवमें समस्त कल्याणों की अवधि आत्मा ही है और आत्मज्ञान प्रदान करनेवाले श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियोंकी प्रिय आत्मा हैं ॥ १३ ॥ जिस प्रकार वृक्षकी जड़ सींचनेसे उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभीका पोषण हो जाता है और जैसे भोजनद्वारा प्राणोंको तृप्त करनेसे समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रीभगवान्की पूजा ही सबकी पूजा है ॥ १४ ॥ जिस प्रकार वर्षाकालमें जल सूर्यके तापसे उत्पन्न होता है और ग्रीष्म- ऋतुमें उसीकी किरणोंमें पुन: प्रवेश कर जाता है तथा जैसे समस्त चराचर भूत पृथ्वीसे उत्पन्न होते हैं और फिर उसीमें मिल जाते हैं, उसी प्रकार चेतनाचेतनात्मक यह समस्त प्रपञ्च श्रीहरिसे ही उत्पन्न होता है और उन्हींमें लीन हो जाता है ॥ १५ ॥ वस्तुत: यह विश्वात्मा श्रीभगवान्का वह शास्त्रप्रसद्धि सर्वोपाधिरहित स्वरूप ही है। जैसे सूर्यकी प्रभा उससे भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार कभी-कभी गन्धर्व-नगरके समान स्फुरित होनेवाला यह जगत् भगवान्से भिन्न नहीं है; तथा जैसे जाग्रत् अवस्थामें इन्द्रियाँ क्रियाशील रहती हैं किन्तु सुषुप्तिमें उनकी शक्तियाँ लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार यह जगत् सर्गकालमें भगवान्से प्रकट हो जाता है और कल्पान्त होनेपर उन्हींमें लीन हो जाता है। स्वरूपत: तो भगवान्में द्रव्य, क्रिया और ज्ञानरूपी त्रिविध अहंकारके कार्योंकी तथा उनके निमित्तसे होनेवाले भेदभ्रमकी सत्ता है ही नहीं ॥ १६ ॥ नृपतिगण ! जैसे बादल, अन्धकार और प्रकाश—ये क्रमश: आकाशसे प्रकट होते हैं और उसीमें लीन हो जाते हैं; किन्तु आकाश इनसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार ये सत्त्व, रज, और तमोमयी शक्तियाँ कभी परब्रह्मसे उत्पन्न होती हैं और कभी उसीमें लीन हो जाती हैं। इसी प्रकार इनका प्रवाह चलता रहता है; किन्तु इससे आकाशके समान असङ्ग परमात्मामें कोई विकार नहीं होता ॥ १७ ॥ अत: तुम ब्रह्मादि समस्त लोकपालोंके भी अधीश्वर श्रीहरिको अपनेसे अभिन्न मानते हुए भजो क्योंकि वे ही समस्त देहधारियोंके एकमात्र आत्मा हैं। वे ही जगत् के निमित्तकारण काल, उपादानकारण प्रधान और नियन्ता पुरुषोत्तम हैं तथा अपनी कालशक्तिसे वे ही इस गुणोंके प्रवाहरूप प्रपञ्चका संहार कर देते हैं ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
💐💟🌿💐जय श्रीहरि:🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्रीराधेकृष्णाभ्याम् नमः🙏