॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०३)
प्रियव्रत-चरित्र
मुक्तोऽपि तावद्बिभृयात्स्वदेहमारब्धमश्नन्नभिमानशून्यः
यथानुभूतं प्रतियातनिद्रः किं त्वन्यदेहाय गुणान्न वृङ्क्ते ||१६||
भयं प्रमत्तस्य वनेष्वपि स्याद्यतः स आस्ते सहषट्सपत्नः
जितेन्द्रियस्यात्मरतेर्बुधस्य गृहाश्रमः किं नु करोत्यवद्यम् ||१७||
यः षट्सपत्नान्विजिगीषमाणो गृहेषु निर्विश्य यतेत पूर्वम्
अत्येति दुर्गाश्रित ऊर्जितारीन्क्षीणेषु कामं विचरेद्विपश्चित् ||१८||
त्वं त्वब्जनाभाङ्घ्रिसरोजकोश दुर्गाश्रितो निर्जितषट्सपत्नः
भुङ्क्ष्वेह भोगान्पुरुषातिदिष्टान्विमुक्तसङ्गः प्रकृतिं भजस्व ||१९||
श्रीशुक उवाच
इति समभिहितो महाभागवतो भगवतस्त्रिभुवनगुरोरनुशासनमात्मनो लघुतयावनत शिरोधरो बाढमिति सबहुमानमुवाह ||२०||
भगवानपि मनुना यथावदुपकल्पितापचितिः प्रियव्रत नारदयोरविषममभिसमीक्षमाणयोरात्मसमवस्थानमवाङ्मनसं क्षयमव्यवहृतं प्रवर्तयन्नगमत् ||२१||
मुक्त पुरुष भी प्रारब्ध का भोग करता हुआ भगवान्की इच्छाके अनुसार अपने शरीरको धारण करता ही है; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यकी निद्रा टूट जानेपर भी स्वप्नमें अनुभव किये हुए पदार्थों का स्मरण होता है। इस अवस्थामें भी उसको अभिमान नहीं होता और विषय-वासनाके जिन संस्कारों के कारण दूसरा जन्म होता है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता ॥ १६ ॥ जो पुरुष इन्द्रियों के वशीभूत है, वह वन-वनमें विचरण करता रहे तो भी उसे जन्म-मरणका भय बना ही रहता है; क्योंकि बिना जीते हुए मन और इन्द्रियरूपी उसके छ: शत्रु कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते। जो बुद्धिमान् पुरुष इन्द्रियोंको जीतकर अपनी आत्मामें ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है ? ॥ १७ ॥ जिसे इन छ: शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा हो, वह पहले घरमें रहकर ही उनका अत्यन्त निरोध करते हुए उन्हें वशमें करनेका प्रयत्न करे। किलेमें सुरक्षित रहकर लडऩेवाला राजा अपने प्रबल शत्रुओंको भी जीत लेता है। फिर जब इन शत्रुओंका बल अत्यन्त क्षीण हो जाय, तब विद्वान् पुरुष इच्छानुसार विचर सकता है ॥ १८ ॥ तुम यद्यपि श्रीकमलनाभ भगवान् के चरणकमलकी कली रूप किलेके आश्रित रहकर इन छहों शत्रुओं को जीत चुके हो, तो भी पहले उन पुराणपुरुष के दिये हुए भोगों को भोगो; इसके बाद नि:सङ्ग होकर अपने आत्मस्वरूपमें स्थित हो जाना ॥ १९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब त्रिलोकीके गुरु श्रीब्रह्माजीने इस प्रकार कहा, तो परमभागवत प्रियव्रतने छोटे होनेके कारण नम्रतासे सिर झुका लिया और ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर बड़े आदरपूर्वक उनका आदेश शिरोधार्य किया ॥ २० ॥ तब स्वायम्भुव मनुने प्रसन्न होकर भगवान् ब्रह्माजीकी विधिवत् पूजा की। इसके पश्चात् वे मन और वाणीके अविषय, अपने आश्रय तथा सर्वव्यवहारातीत परब्रह्मका चिन्तन करते हुए अपने लोकको चले गये। इस समय प्रियव्रत और नारदजी सरल भावसे उनकी ओर देख रहे थे ॥ २१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀 जय श्रीहरि: !!🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
हरि: शरणम् !!! 🙏