शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना

अन्यदा भृशमुद्विग्नमना नष्टद्रविण इव कृपणः सकरुणमतितर्षेण हरिणकुणकविरहविह्वलहृदयसन्तापस्तमेवानुशोचन्किल कश्मलं महदभिरम्भित इति होवाच ||१५||
अपि बत स वै कृपण एणबालको मृतहरिणीसुतोऽहो ममानार्यस्य शठकिरातमतेरकृतसुकृतस्य कृतविस्रम्भ आत्मप्रत्ययेन तदविगणयन्सुजन इवागष्यिति ||१६||
अपि क्षेमेणास्मिन्नाश्रमोपवने शष्पाणि चरन्तं देवगुप्तं द्रक्ष्यामि ||१७||
अपि च न वृकः सालावृकोऽन्यतमो वा नैकचर एकचरो वा भक्षयति ||१८||
निम्लोचति ह भगवान्सकलजगत्क्षेमोदयस्त्रय्यात्माद्यापि मम न मृगवधून्यास आगच्छति ||१९||
अपि स्विदकृतसुकृतमागत्य मां सुखयिष्यति हरिणराजकुमारो विविधरुचिरदर्शनीयनिजमृगदारकविनोदैरसन्तोषं स्वानामपनुदन् ||२०||
क्ष्वेलिकायां मां मृषासमाधिनामीलितदृशं प्रेमसंरम्भेण चकितचकित आगत्य पृषद् अपरुषविषाणाग्रेण लुठति ||२१||
आसादितहविषि बर्हिषि दूषिते मयोपालब्धो भीतभीतः सपद्युपरतरास ऋषिकुमारवदवहितकरणकलाप आस्ते ||२२||

कभी यदि वह (हरिन के बच्चा) दिखायी न देता तो जिसका धन लुट गया हो, उस दीन मनुष्यके समान उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो जाता और फिर वे उस हरिनीके बच्चेके विरहसे व्याकुल एवं सन्तप्त हो करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित एवं मोहाविष्ट हो जाते तथा शोकमग्र होकर इस प्रकार कहने लगते ॥ १५ ॥ ‘अहो ! क्या कहा जाय ? क्या वह मातृहीन दीन मृगशावक दुष्ट बहेलियेकी-सी बुद्धिवाले मुझ पुण्यहीन अनार्यका विश्वास करके और मुझे अपना मानकर मेरे किये हुए अपराधोंको सत्पुरुषोंके समान भूलकर फिर लौट आयेगा ? ॥ १६ ॥ क्या मैं उसे फिर इस आश्रमके उपवनमें भगवान्‌की कृपासे सुरक्षित रहकर निर्विघ्र हरी-हरी दूब चरते देखूँगा ? ॥ १७ ॥ ऐसा न हो कि कोई भेडिय़ा, कुत्ता, गोल बाँधकर विचरनेवाले सूकरादि अथवा अकेले घूमनेवाले व्याघ्रादि ही उसे खा जायँ ॥ १८ ॥ अरे ! सम्पूर्ण जगत् की  कुशल के लिये प्रकट होनेवाले वेदत्रयीरूप भगवान्‌ सूर्य अस्त होना चाहते हैं; किन्तु अभीतक वह मृगीकी धरोहर लौटकर नहीं आयी ! ॥ १९ ॥ क्या वह हरिणराजकुमार मुझ पुण्यहीनके पास आकर अपनी भाँति-भाँतिकी मृगशावकोचित मनोहर एवं दर्शनीय क्रीडाओंसे अपने स्वजनोंका शोक दूर करते हुए मुझे आनन्दित करेगा ? ॥ २० ॥ अहो ! जब कभी मैं प्रणयकोपसे खेलमें झूठ-मूठ समाधिके बहाने आँखें मूँदकर बैठ जाता, तब वह चकित चित्तसे मेरे पास आकर जलबिन्दुके समान कोमल और नन्हें-नन्हें सींगोंकी नोकसे किस प्रकार मेरे अङ्गोंको खुजलाने लगता था ॥ २१ ॥ मैं कभी कुशोंपर हवन सामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतोंसे खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटनेपर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमारके समान अपनी समस्त इन्द्रियोंको रोककर चुपचाप बैठ जाता था’ ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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