॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०१)
प्रियव्रत-चरित्र
राजोवाच
प्रियव्रतो भागवत आत्मारामः कथं मुने
गृहेऽरमत यन्मूलः कर्मबन्धः पराभवः ||१||
न नूनं मुक्तसङ्गानां तादृशानां द्विजर्षभ
गृहेष्वभिनिवेशोऽयं पुंसां भवितुमर्हति ||२||
महतां खलु विप्रर्षे उत्तमश्लोकपादयोः
छायानिर्वृतचित्तानां न कुटुम्बे स्पृहामतिः ||३||
संशयोऽयं महान्ब्रह्मन्दारागारसुतादिषु
सक्तस्य यत्सिद्धिरभूत्कृष्णे च मतिरच्युता ||४||
श्रीशुक उवाच
बाढमुक्तं भगवत उत्तमश्लोकस्य श्रीमच्चरणारविन्दमकरन्दरस आवेशितचेतसो भागवतपरमहंसदयितकथां किञ्चिदन्तरायविहतां स्वां शिवतमां पदवीं न प्रायेण हिन्वन्ति ||५||
यर्हि वाव ह राजन् स राजपुत्रः प्रियव्रतः परमभागवतो नारदस्य चरणोपसेवयाञ्जसावगतपरमार्थसतत्त्वो ब्रह्मसत्रेण दीक्षिष्यमाणो ऽवनितलपरिपालनायाम्नात प्रवरगुणगणैकान्तभाजनतया स्वपित्रोपामन्त्रितो भगवति वासुदेव एवाव्यवधानसमाधियोगेन समावेशित सकलकारकक्रियाकलापो नैवाभ्यनन्दद्यद्यपि तदप्रत्याम्नातव्यं तदधिकरण आत्मनोऽन्यस्मादसतोऽपि पराभवमन्वीक्षमाणः ||६||
राजा परीक्षित्ने पूछा—मुने ! महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रममें कैसे रुचि हुई, जिसमें फँसनेके कारण मनुष्यको अपने स्वरूपकी विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धनमें बँध जाता है ? ॥ १ ॥ विप्रवर ! निश्चय ही ऐसे नि:सङ्ग महापुरुषोंका इस प्रकार गृहस्थाश्रममें अभिनिवेश होना उचित नहीं है ॥ २ ॥ इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं कि जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरिके चरणोंकी शीतल छायाका आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषोंकी कुटुम्बादिमें कभी आसक्ति नहीं हो सकती ॥ ३ ॥ ब्रह्मन् ! मुझे इस बातका बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियव्रतने स्त्री, घर और पुत्रादिमें आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर ली और क्योंकर उनकी भगवान् श्रीकृष्णमें अविचल भक्ति हुई ॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा—राजन् ! तुम्हारा कथन बहुत ठीक है। जिनका चित्त पवित्रकीर्ति श्रीहरिके परम मधुर चरणकमल-मकरन्दके रसमें सराबोर हो गया है, वे किसी विघ्र-बाधाके कारण रुकावट आ जानेपर भी भगवद्भक्त परमहंसोंके प्रिय श्रीवासुदेव भगवान्के कथाश्रवणरूपी परम कल्याणमय मार्गको प्राय: छोड़ते नहीं ॥ ५ ॥ राजन् ! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भगवद्भक्त थे, श्रीनारदजीके चरणोंकी सेवा करनेसे उन्हें सहजमें ही परमार्थतत्त्वका बोध हो गया था। वे ब्रह्मसत्रकी दीक्षा—निरन्तर ब्रह्माभ्यासमें जीवन बितानेका नियम लेनेवाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनुने उन्हें पृथ्वीपालनके लिये शास्त्रमें बताये हुए सभी श्रेष्ठ गुणोंसे पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासनके लिये आज्ञा दी। किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोगके द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओंको भगवान् वासुदेवके चरणोंमें ही समर्पण कर चुके थे। अत: पिताकी आज्ञा किसी प्रकार उल्लङ्घन करनेयोग्य न होनेपर भी, यह सोचकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपञ्चसे आच्छादित हो जायगा—राज्य और कुटुम्बकी चिन्तामें फँसकर मैं परमार्थतत्त्वको प्राय: भूल जाऊँगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया ॥ ६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀जय श्री हरि: !!🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
हरि हरये नमः कृष्ण माधवाय
नमः
नारायण नारायण नारायण नारायण