गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना

तं त्वेणकुणकं कृपणं स्रोतसानूह्यमानमभिवीक्ष्यापविद्धं बन्धुरिवानुकम्पया राजर्षिर्भरत आदाय मृतमातरमित्याश्रमपदमनयत् ||७||
तस्य ह वा एणकुणक उच्चैरेतस्मिन्कृतनिजाभिमानस्याहरहस्तत्पोषणपालनलालनप्रीणनानुध्यानेनात्मनियमाः सहयमाः पुरुषपरिचर्यादय एकैकशः कतिपयेनाहर्गणेन वियुज्यमानाः किल सर्व एवोदवसन् ||८||
अहो बतायं हरिणकुणकः कृपण ईश्वररथचरणपरिभ्रमणरयेण स्वगणसुहृद् बन्धुभ्यः परिवर्जितः शरणं च मोपसादितो मामेव माता-पितरौ भ्रातृज्ञातीन्यौथिकांश्चैवोपेयाय नान्यं कञ्चन वेद मय्यतिवि-स्रब्धश्चात एव मया मत्परायणस्य पोषणपालनप्रीणनलालनमनसूयुनानुष्ठेयं शरण्योपेक्षादोषविदुषा ||९||
नूनं ह्यार्याः साधव उपशमशीलाः कृपणसुहृद एवंविधार्थे स्वार्थानपि गुरुतरानुपेक्षन्ते ||१०||

राजर्षि भरतने देखा कि बेचारा हरिनीका बच्चा अपने बन्धुओंसे बिछुडक़र नदीके प्रवाहमें बह रहा है। इससे उन्हें उसपर बड़ी दया आयी और वे आत्मीयके समान उस मातृहीन बच्चेको अपने आश्रमपर ले आये ॥ ७ ॥ उस मृगछौनेके प्रति भरतजीकी ममता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी। वे नित्य उसके खाने-पीनेका प्रबन्ध करने, व्याघ्रादिसे बचाने, लाड़ लड़ाने और पुचकारने आदिकी चिन्तामें ही डूबे रहने लगे। कुछ ही दिनोंमें उनके यम, नियम और भगवत्पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक- एक करके छूटने लगे और अन्तमें सभी छूट गये ॥ ८ ॥ उन्हें ऐसा विचार रहने लगा—‘अहो ! कैसे खेदकी बात है ! इस बेचारे दीन मृगछौनेको कालचक्रके वेगने अपने झुंड, सुहृद् और बन्धुओंसे दूर करके मेरी शरणमें पहुँचा दिया है। यह मुझे ही अपना माता-पिता, भाई-बन्धु और यूथके साथी-सङ्गी समझता है। इसे मेरे सिवा और किसीका पता नहीं है और मुझमें इसका विश्वास भी बहुत है। मैं भी शरणागतकी उपेक्षा करनेमें जो दोष हैं, उन्हें जानता हूँ। इसलिये मुझे अब अपने इस आश्रितका सब प्रकारकी दोषबुद्धि छोडक़र अच्छी तरह पालन-पोषण और प्यार-दुलार करना चाहिये ॥ ९ ॥ निश्चय ही शान्त-स्वभाव और दीनोंकी रक्षा करनेवाले परोपकारी सज्जन ऐसे शरणागतकी रक्षाके लिये अपने बड़े-से-बड़े स्वार्थकी भी परवा नहीं करते’ ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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