सोमवार, 11 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

मैत्रेय उवाच –

इति सन्दिश्य भगवान् बार्हिषदैरभिपूजितः ।
पश्यतां राजपुत्राणां तत्रैवान्तर्दधे हरः ॥ १ ॥
रुद्रगीतं भगवतः स्तोत्रं सर्वे प्रचेतसः ।
जपन्तस्ते तपस्तेपुः वर्षाणां अयुतं जले ॥ २ ॥
प्राचीनबर्हिषं क्षत्तः कर्मस्वासक्तमानसम् ।
नारदोऽध्यात्मतत्त्वज्ञः कृपालुः प्रत्यबोधयत् ॥ ३ ॥
श्रेयस्त्वं कतमद्राजन् कर्मणात्मन ईहसे ।
दुःखहानिः सुखावाप्तिः श्रेयस्तन्नेह चेष्यते ॥ ४ ॥

राजोवाच –

न जानामि महाभाग परं कर्मापविद्धधीः ।
ब्रूहि मे विमलं ज्ञानं येन मुच्येय कर्मभिः ॥ ५ ॥
गृहेषु कूटधर्मेषु पुत्रदारधनार्थधीः ।
न परं विन्दते मूढो भ्राम्यन् संसारवर्त्मसु ॥ ॥ ६ ॥

नारद उवाच –

भो भोः प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे ।
संज्ञापिताञ्जीवसङ्‌घान् निर्घृणेन सहस्रशः ॥ ७ ॥
एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव ।
सम्परेतमयःकूटैः छिन्दति उत्थितमन्यवः ॥ ८ ॥
अत्र ते कथयिष्येऽमुं इतिहासं पुरातनम् ।
पुरञ्जनस्य चरितं निबोध गदतो मम ॥ ९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! इस प्रकार भगवान्‌ शङ्करने प्रचेताओंको उपदेश दिया। फिर प्रचेताओंने शङ्करजीकी बड़े भक्तिभावसे पूजा की। इसके पश्चात् वे उन राजकुमारोंके सामने ही अन्तर्धान हो गये ॥ १ ॥ सब-के-सब प्रचेता जलमें खड़े रहकर भगवान्‌ रुद्रके बताये स्तोत्रका जप करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या करते रहे ॥ २ ॥ इन दिनों राजा प्राचीनबर्हि का चित्त कर्मकाण्डमें बहुत रम गया था। उन्हें अध्यात्मविद्या-विशारद परम कृपालु नारदजीने उपदेश दिया ॥ ३ ॥ उन्होंने कहा कि राजन् ! इन कर्मोंके द्वारा तुम अपना कौन-सा कल्याण करना चाहते हो ? दु:खके आत्यन्तिक नाश और परमानन्दकी प्राप्तिका नाम कल्याण है; वह तो कर्मोंसे नहीं मिलता॥ ४ ॥
राजाने कहामहाभाग नारदजी ! मेरी बुद्धि कर्ममें फँसी हुई है, इसलिये मुझे परम कल्याणका कोई पता नहीं है। आप मुझे विशुद्ध ज्ञानका उपदेश दीजिये, जिससे मैं इस कर्मबन्धनसे छूट जाऊँ ॥ ५ ॥ जो पुरुष कपटधर्ममय गृहस्थाश्रममें ही रहता हुआ पुत्र, स्त्री और धनको ही परम पुरुषार्थ मानता है, वह अज्ञानवश संसारारण्यमें ही भटकता रहनेके कारण उस परम कल्याणको प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ६ ॥
श्रीनारदजीने कहादेखो, देखो, राजन् ! तुमने यज्ञमें निर्दयतापूर्वक जिन हजारों पशुओंकी बलि दी हैउन्हें आकाशमें देखो ॥ ७ ॥ ये सब तुम्हारे द्वारा प्राप्त हुई पीड़ाओंको याद करते हुए बदला लेनेके लिये तुम्हारी बाट देख रहे हैं। जब तुम मरकर परलोकमें जाओगे, तब ये अत्यन्त क्रोधमें भरकर तुम्हें अपने लोहेके-से सींगोंसे छेदेंगे ॥ ८ ॥ अच्छा, इस विषयमें मैं तुम्हें एक प्राचीन उपाख्यान सुनाता हूँ। वह राजा पुरञ्जनका चरित्र है, उसे तुम मुझसे सावधान होकर सुनो ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                        000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

आसीत्पुरञ्जनो नाम राजा राजन् बृहच्छ्रवाः ।
तस्याविज्ञातनामाऽऽसीत् सखाविज्ञातचेष्टितः ॥ १० ॥
सोऽन्वेषमाणः शरणं बभ्राम पृथिवीं प्रभुः ।
नानुरूपं यदाविन्दद् अभूत्स विमना इव ॥ ११ ॥
न साधु मेने ताः सर्वा भूतले यावतीः पुरः ।
कामान् कामयमानोऽसौ तस्य तस्योपपत्तये ॥ १२ ॥
स एकदा हिमवतो दक्षिणेष्वथ सानुषु ।
ददर्श नवभिर्द्वार्भिः पुरं लक्षितलक्षणाम् ॥ १३ ॥
प्राकारोपवनाट्टाल परिखैरक्षतोरणैः ।
स्वर्णरौप्यायसैः शृङ्‌गैः सङ्‌कुलां सर्वतो गृहैः ॥ १४ ॥
नीलस्फटिकवैदूर्य मुक्तामरकतारुणैः ।
कॢप्तहर्म्यस्थलीं दीप्तां श्रिया भोगवतीमिव ॥ १५ ॥
सभाचत्वर रथ्याभिः आक्रीडायतनापणैः ।
चैत्यध्वजपताकाभिः युक्तां विद्रुमवेदिभिः ॥ १६ ॥
पुर्यास्तु बाह्योपवने दिव्यद्रुमलताकुले ।
नदद् विहङ्‌गालिकुल कोलाहलजलाशये ॥ १७ ॥
हिमनिर्झरविप्रुष्मत् कुसुमाकरवायुना ।
चलत्प्रवालविटप नलिनीतटसम्पदि ॥ १८ ॥
नानारण्यमृगव्रातैः अनाबाधे मुनिव्रतैः ।
आहूतं मन्यते पान्थो यत्र कोकिलकूजितैः ॥ १९ ॥

(श्रीनारद जी राजा प्राचीनबर्हि से कहते हैं)  राजन् ! पूर्वकालमें पुरञ्जन नामका एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था। कोई भी उसकी चेष्टाओंको समझ नहीं सकता था ॥ १० ॥ राजा पुरञ्जन अपने रहनेयोग्य स्थानकी खोजमें सारी पृथ्वीमें घूमा; फिर भी जब उसे कोई अनुरूप स्थान न मिला, तब वह कुछ उदास-सा हो गया ॥ ११ ॥ उसे तरह-तरहके भोगोंकी लालसा थी; उन्हें भोगनेके लिये उसनेसंसारमें जितने नगर देखे, उनमेंसे कोई भी उसे ठीक न जँचा ॥ १२ ॥ एक दिन उसने हिमालयके दक्षिण तटवर्ती शिखरोंपर कर्मभूमि भारतखण्डमें एक नौ द्वारोंका नगर देखा। वह सब प्रकारके सुलक्षणोंसे सम्पन्न था ॥ १३ ॥ सब ओरसे परकोटों, बगीचों, अटारियों, खाइयों, झरोखों और राजद्वारोंसे सुशोभित था और सोने, चाँदी तथा लोहेके शिखरोंवाले विशाल भवनोंसे खचाखच भरा था ॥ १४ ॥ उसके महलोंकी फर्शें नीलम, स्फटिक, वैदूर्य, मोती, पन्ने और लालोंकी बनी हुई थीं। अपनी कान्तिके कारण वह नागोंकी राजधानी भोगवतीपुरीके समान जान पड़ता था ॥ १५ ॥ उसमें जहाँ-तहाँ अनेकों सभा भवन, चौराहे, सडक़ें, क्रीडाभवन, बाजार, विश्राम-स्थान, ध्वजा-पताकाएँ और मूँगेके चबूतरे सुशोभित थे ॥ १६ ॥ उस नगरके बाहर दिव्य वृक्ष और लताओंसे पूर्ण एक सुन्दर बाग था; उसके बीचमें एक सरोवर सुशोभित था। उसके आस-पास अनेकों पक्षी भाँति-भाँतिकी बोली बोल रहे थे तथा भौंरे गुंजार कर रहे थे ॥ १७ ॥ सरोवरके तटपर जो वृक्ष थे, उनकी डालियाँ और पत्ते शीतल झरनोंके जलकणोंसे मिली हुई वासन्ती वायुके झकोरोंसे हिल रहे थे और इस प्रकार वे तटवर्ती भूमिकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १८ ॥ वहाँके वन्य पशु भी मुनिजनोचित अहिंसादि व्रतोंका पालन करनेवाले थे, इसलिये उनसे किसीको कोई कष्ट नहीं पहुँचता था। वहाँ बार-बार जो कोकिलकी कुहू-ध्वनि होती थी, उससे मार्गमें चलनेवाले बटोहियोंको ऐसा भ्रम होता था मानो वह बगीचा विश्राम करनेके लिये उन्हें बुला रहा है ॥ १९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                   000000000



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

यदृच्छयागतां तत्र ददर्श प्रमदोत्तमाम् ।
भृत्यैर्दशभिरायान्तीं एकैकशतनायकैः ॥ २० ॥
अञ्चशीर्षाहिना गुप्तां प्रतीहारेण सर्वतः ।
अन्वेषमाणां ऋषभं अप्रौढां कामरूपिणीम् ॥ २१ ॥
सुनासां सुदतीं बालां सुकपोलां वराननाम् ।
समविन्यस्तकर्णाभ्यां बिभ्रतीं कुण्डलश्रियम् ॥ २२ ॥
पिशङ्‌गनीवीं सुश्रोणीं श्यामां कनकमेखलाम् ।
पद्‍भ्यां क्वणद्‍भ्यां चलन्तीं नूपुरैर्देवतामिव ॥ २३ ॥
स्तनौ व्यञ्जितकैशोरौ समवृत्तौ निरन्तरौ ।
वस्त्रान्तेन निगूहन्तीं व्रीडया गजगामिनीम् ॥ २४ ॥
तामाह ललितं वीरः सव्रीडस्मितशोभनाम् ।
स्निग्धेनापाङ्‌गपुङ्‌खेन स्पृष्टः प्रेमोद्‍भ्रमद्‍भ्रुवा ॥ २५ ॥

राजा पुरञ्जनने उस अद्भुत वनमें घूमते-घूमते एक सुन्दरीको आते देखा, जो अकस्मात् उधर चली आयी थी। उसके साथ दस सेवक थे, जिनमेंसे प्रत्येक सौ-सौ नायिकाओंका पति था ॥ २० ॥ एक पाँच फनवाला साँप उसका द्वारपाल था, वही उसकी सब ओरसे रक्षा करता था। वह सुन्दरी भोली-भाली किशोरी थी और विवाहके लिये श्रेष्ठ पुरुषकी खोजमें थी ॥ २१ ॥ उसकी नासिका, दन्तपङ्क्ति, कपोल और मुख बहुत सुन्दर थे। उसके समान कानोंमें कुण्डल झिलमिला रहे थे ॥ २२ ॥ उसका रंग साँवला था। कटिप्रदेश सुन्दर था। वह पीले रँगकी साड़ी और सोनेकी करधनी पहने हुए थी तथा चलते समय चरणोंसे नूपुरोंकी झनकार करती जाती थी। अधिक क्या वह साक्षात् कोई देवी-सी जान पड़ती थी ॥ २३ ॥ वह गजगामिनी बाला किशोरावस्थाकी सूचना देनेवाले अपने गोल-गोल समान और परस्पर सटे हुए स्तनोंको लज्जावश बार-बार अञ्चलसे ढकती जाती थी ॥ २४ ॥ उसकी प्रेमसे मटकती भौंह और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवनके बाणसे घायल होकर वीर पुरञ्जनने लज्जायुक्त मुसकानसे और भी सुन्दर लगनेवाली उस देवीसे मधुरवाणीमें कहा ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                       000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

का त्वं कञ्जपलाशाक्षि कस्यासीह कुतः सति ।
इमामुप पुरीं भीरु किं चिकीर्षसि शंस मे ॥ २६ ॥
क एतेऽनुपथा ये ते एकादश महाभटाः ।
एता वा ललनाः सुभ्रु कोऽयं तेऽहिः पुरःसरः ॥ २७ ॥
त्वं ह्रीर्भवान्यस्यथ वाग्रमा पतिं
     विचिन्वती किं मुनिवद्रहो वने ।
त्वदङ्‌घ्रिकामाप्तसमस्तकामं
     क्व पद्मकोशः पतितः कराग्रात् ॥ २८ ॥
नासां वरोर्वन्यतमा भुविस्पृक्
     पुरीं इमां वीरवरेण साकम् ।
अर्हस्यलङ्‌कर्तुमदभ्रकर्मणा
     लोकं परं श्रीरिव यज्ञपुंसा ॥ २९ ॥
यदेष मापाङ्‌गविखण्डितेन्द्रियं
     सव्रीडभावस्मितविभ्रमद्‍भ्रुवा ।
त्वयोपसृष्टो भगवान् मनोभवः
     प्रबाधतेऽथानुगृहाण शोभने ॥ ३० ॥
त्वदाननं सुभ्रु सुतारलोचनं
     व्यालम्बिनीलालकवृन्दसंवृतम् ।
उन्नीय मे दर्शय वल्गुवाचकं
     यद्व्रीडया नाभिमुखं शुचिस्मिते ॥ ३१ ॥

(राजा पुरञ्जन उस सुन्दरी से कहते हैं) कमलदललोचने’ ! मुझे बताओ तुम कौन हो, किसकी कन्या हो ? साध्वी ! इस समय आ कहाँ से रही हो, भीरु ! इस पुरीके समीप तुम क्या करना चाहती हो ? ॥ २६ ॥ सुभ्रु ! तुम्हारे साथ इस ग्यारहवें महान् शूरवीरसे सञ्चालित ये दस सेवक कौन हैं और ये सहेलियाँ तथा तुम्हारे आगे- आगे चलनेवाला यह सर्प कौन है ? ॥ २७ ॥ सुन्दरि ! तुम साक्षात् लज्जादेवी हो अथवा उमा, रमा और ब्रह्माणीमेंसे कोई हो ? यहाँ वनमें मुनियोंकी तरह एकान्तवास करके क्या अपने पतिदेवको खोज रही हो ? तुम्हारे प्राणनाथ तो तुम उनके चरणोंकी कामना करती हो’, इतनेसे ही पूर्णकाम हो जायँगे। अच्छा, यदि तुम साक्षात् कमलादेवी हो, तो तुम्हारे हाथका क्रीड़ाकमल कहाँ गिर गया ॥ २८ ॥ सुभगे ! तुम इनमेंसे तो कोई हो नहीं; क्योंकि तुम्हारे चरण पृथ्वीका स्पर्श कर रहे हैं। अच्छा, यदि तुम कोई मानवी ही हो, तो लक्ष्मीजी जिस प्रकार भगवान्‌ विष्णुके साथ वैकुण्ठकी शोभा बढ़ाती हैं, उसी प्रकार तुम मेरे साथ इस श्रेष्ठ पुरीको अलंकृत करो। देखो, मैं बड़ा ही वीर और पराक्रमी हूँ ॥ २९ ॥ परंतु आज तुम्हारे कटाक्षोंने मेरे मनको बेकाबू कर दिया है। तुम्हारी लजीली और रतिभावसे भरी मुसकानके साथ भौंहोंके संकेत पाकर यह शक्तिशाली कामदेव मुझे पीडि़त कर रहा है। इसलिये सुन्दरि ! अब तुम्हें मुझपर कृपा करनी चाहिये ॥ ३० ॥ शुचिस्मिते ! सुन्दर भौंहें और सुघड़ नेत्रोंसे सुशोभित तुम्हारा मुखारविन्द इन लंबी-लंबी काली अलकावलियोंसे घिरा हुआ है; तुम्हारे मुखसे निकले हुए वाक्य बड़े ही मीठे और मन हरनेवाले हैं, परंतु वह मुख तो लाजके मारे मेरी ओर होता ही नहीं। जरा ऊँचा करके अपने उस सुन्दर मुखड़ेका मुझे दर्शन तो कराओ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                   00000000000000



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

नारद उवाच –

इत्थं पुरञ्जनं नारी याचमानमधीरवत् ।
अभ्यनन्दत तं वीरं हसन्ती वीर मोहिता ॥ ३२ ॥
न विदाम वयं सम्यक् कर्तारं पुरुषर्षभ ।
आत्मनश्च परस्यापि गोत्रं नाम च यत्कृतम् ॥ ३३ ॥
इहाद्य सन्तमात्मानं विदाम न ततः परम् ।
येनेयं निर्मिता वीर पुरी शरणमात्मनः ॥ ३४ ॥
एते सखायः सख्यो मे नरा नार्यश्च मानद ।
सुप्तायां मयि जागर्ति नागोऽयं पालयन् पुरीम् ॥ ३५ ॥
दिष्ट्याऽऽगतोऽसि भद्रं ते ग्राम्यान् कामानभीप्ससे ।
उद्वहिष्यामि तांस्तेऽहं स्वबन्धुभिः अरिन्दम ॥ ३६ ॥
इमां त्वं अधितिष्ठस्व पुरीं नवमुखीं विभो ।
मयोपनीतान् गृह्णानः कामभोगान् शतं समाः ॥ ३७ ॥
कं नु त्वदन्यं रमये ह्यरतिज्ञमकोविदम् ।
असम्परायाभिमुखं अश्वस्तनविदं पशुम् ॥ ३८ ॥
धर्मो ह्यत्रार्थकामौ च प्रजानन्दोऽमृतं यशः ।
लोका विशोका विरजा यान्न केवलिनो विदुः ॥ ३९ ॥
पितृदेवर्षिमर्त्यानां भूतानां आत्मनश्च ह ।
क्षेम्यं वदन्ति शरणं भवेऽस्मिन् यद्‍गृहाश्रमः ॥ ४० ॥
का नाम वीर विख्यातं वदान्यं प्रियदर्शनम् ।
न वृणीत प्रियं प्राप्तं मादृशी त्वादृशं पतिम् ॥ ४१ ॥
कस्या मनस्ते भुवि भोगिभोगयोः
     स्त्रिया न सज्जेद्‍भुजयोर्महाभुज ।
योऽनाथवर्गाधिमलं घृणोद्धत
     स्मितावलोकेन चरत्यपोहितुम् ॥ ४२ ॥

श्रीनारदजीने कहावीरवर ! जब राजा पुरञ्जनने अधीर-से होकर इस प्रकार याचना की, तब उस बालाने भी हँसते हुए उसका अनुमोदन किया। वह भी राजाको देखकर मोहित हो चुकी थी ॥ ३२ ॥ वह कहने लगी, ‘नरश्रेष्ठ ! हमें अपने उत्पन्न करनेवालेका ठीक-ठीक पता नहीं है और न हम अपने या किसी दूसरेके नाम या गोत्रको ही जानती हैं ॥ ३३ ॥ वीरवर ! आज हम सब इस पुरीमें हैंइसके सिवा मैं और कुछ नहीं जानती; मुझे इसका भी पता नहीं है कि हमारे रहनेके लिये यह पुरी किसने बनायी है ॥ ३४ ॥ प्रियवर ! ये पुरुष मेरे सखा और स्त्रियाँ मेरी सहेलियाँ हैं तथा जिस समय मैं सो जाती हूँ, यह सर्प जागता हुआ इस पुरीकी रक्षा करता रहता है ॥ ३५ ॥ शत्रुदमन ! आप यहाँ पधारे, यह मेरे लिये सौभाग्यकी बात है। आपका मङ्गल हो। आपको विषय-भोगोंकी इच्छा है, उसकी पूर्तिके लिये मैं अपने साथियोंसहित सभी प्रकारके भोग प्रस्तुत करती रहूँगी ॥ ३६ ॥ प्रभो ! इस नौ द्वारोंवाली पुरीमें मेरे प्रस्तुत किये हुए इच्छित भोगोंको भोगते हुए आप सैकड़ों वर्षोंतक निवास कीजिये ॥ ३७ ॥ भला, आपको छोडक़र मैं और किसके साथ रमण करूँगी ? दूसरे लोग तो न रति सुखको जानते हैं, न विहित भोगको ही भोगते हैं, न परलोकका ही विचार करते हैं और न कल क्या होगाइसका ही ध्यान रखते हैं, अतएव पशुतुल्य हैं ॥ ३८ ॥ अहो ! इस लोकमें गृहस्थाश्रममें ही धर्म, अर्थ, काम, सन्तान-सुख, मोक्ष, सुयश और स्वर्गादि दिव्य लोकोंकी प्राप्ति हो सकती है। संसारत्यागी यतिजन तो इन सबकी कल्पना भी नहीं कर सकते ॥ ३९ ॥ महापुरुषोंका कथन है कि इस लोकमें पितर, देव, ऋषि, मनुष्य तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके और अपने भी कल्याणका आश्रय एकमात्र गृहस्थाश्रम ही है ॥ ४० ॥ वीरशिरोमणे ! लोकमें मेरी-जैसी कौन स्त्री होगी, जो स्वयं प्राप्त हुए आप-जैसे सुप्रसिद्ध, उदारचित्त और सुन्दर पतिको वरण न करेगी ॥ ४१ ॥ महाबाहो ! इस पृथ्वीपर आपकी साँप-जैसी गोलाकार सुकोमल भुजाओंमें स्थान पानेके लिये किस कामिनीका चित्त न ललचावेगा ? आप तो अपनी मधुर मुसकानमयी करुणापूर्ण दृष्टिसे हम जैसी अनाथाओंके मानसिक सन्तापको शान्त करनेके लिये ही पृथ्वीमें विचर रहे हैं॥ ४२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                000000000



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

नारद उवाच -

इति तौ दम्पती तत्र समुद्य समयं मिथः ।
तां प्रविश्य पुरीं राजन् मुमुदाते शतं समाः ॥ ४३ ॥
उपगीयमानो ललितं तत्र तत्र च गायकैः ।
क्रीडन् परिवृतः स्त्रीभिः ह्रदिनीं आविशत् शुचौ ॥ ४४ ॥
सप्तोपरि कृता द्वारः पुरस्तस्यास्तु द्वे अधः ।
पृथग् विषयगत्यर्थं तस्यां यः कश्चनेश्वरः ॥ ४५ ॥
पञ्च द्वारस्तु पौरस्त्या दक्षिणैका तथोत्तरा ।
पश्चिमे द्वे अमूषां ते नामानि नृप वर्णये ॥ ४६ ॥
खद्योताऽऽविर्मुखी च प्राग् द्वारावेकत्र निर्मिते ।
विभ्राजितं जनपदं याति ताभ्यां द्युमत्सखः ॥ ४७ ॥
नलिनी नालिनी च प्राग् द्वारौ एकत्र निर्मिते ।
अवधूतसखस्ताभ्यां विषयं याति सौरभम् ॥ ४८ ॥
मुख्या नाम पुरस्ताद् द्वाः तयाऽऽपणबहूदनौ ।
विषयौ याति पुरराड् रसज्ञविपणान्वितः ॥ ४९ ॥
पितृहूर्नृप पुर्या द्वाः दक्षिणेन पुरञ्जनः ।
राष्ट्रं दक्षिणपञ्चालं याति श्रुतधरान्वितः ॥ ५० ॥
देवहूर्नाम पुर्या द्वा उत्तरेण पुरञ्जनः ।
राष्ट्रं उत्तरपञ्चालं याति श्रुतधरान्वितः ॥ ५१ ॥
आसुरी नाम पश्चाद् द्वाः तया याति पुरञ्जनः ।
ग्रामकं नाम विषयं दुर्मदेन समन्वितः ॥ ५२ ॥
निर्‌ऋतिर्नाम पश्चाद् द्वाः तया याति पुरञ्जनः ।
वैशसं नाम विषयं लुब्धकेन समन्वितः ॥ ५३ ॥
अन्धावमीषां पौराणां निर्वाक् पेशस्कृतावुभौ ।
अक्षण्वतामधिपतिः ताभ्यां याति करोति च ॥ ५४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैंराजन् ! उन स्त्री-पुरुषोंने इस प्रकार एक-दूसरेकी बातका समर्थन कर फिर सौ वर्षोंतक उस पुरीमें रहकर आनन्द भोगा ॥ ४३ ॥ गायक लोग सुमधुर स्वरमें जहाँ-तहाँ राजा पुरञ्जनकी कीर्ति गाया करते थे। जब ग्रीष्म ऋतु आती, तब वह अनेकों स्त्रियोंके साथ सरोवरमें घुसकर जलक्रीड़ा करता ॥ ४४ ॥ उस नगरमें जो नौ द्वार थे, उनमेंसे सात नगरीके ऊपर और दो नीचे थे। उस नगरका जो कोई राजा होता, उसके पृथक्-पृथक् देशोंमें जानेके लिये ये द्वार बनाये गये थे ॥ ४५ ॥ राजन् ! इनमेंसे पाँच पूर्व, एक दक्षिण, एक उत्तर और दो पश्चिमकी ओर थे। उनके नामोंका वर्णन करता हूँ ॥ ४६ ॥ पूर्वकी ओर खद्योता और आविर्मुखी नामके दो द्वार एक ही जगह बनाये गये थे। उनमें होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र द्युमान् के साथ विभ्राजित नामक देशको जाया करता था ॥ ४७ ॥ इसी प्रकार उस ओर नलिनी और नालिनी नामके दो द्वार और भी एक ही जगह बनाये गये थे। उनसे होकर वह अवधूतके साथ सौरभ नामक देशको जाता था ॥ ४८ ॥ पूर्वदिशाकी ओर मुख्या नामका जो पाँचवाँ द्वार था, उसमें होकर वह रसज्ञ और विपणके साथ क्रमश: बहूदन और आपण नामके देशोंको जाता था ॥ ४९ ॥ पुरीके दक्षिणकी ओर जो पितृहू नामका द्वार था, उसमें होकर राजा पुरञ्जन श्रुतधरके साथ दक्षिणपाञ्चाल देशको जाता था ॥ ५० ॥ उत्तरकी ओर जो देवहू नामका द्वार था, उससे श्रुतधरके ही साथ वह उत्तरपाञ्चाल देशको जाता था ॥ ५१ ॥ पश्चिम दिशामें आसुरी नामका दरवाजा था, उसमें होकर वह दुर्मदके साथ ग्रामक देशको जाता था ॥ ५२ ॥ तथा निर्ऋति नामका जो दूसरा पश्चिम द्वार था, उससे लुब्धकके साथ वह वैशस नामके देशको जाता था ॥ ५३ ॥ इस नगरके निवासियोंमें निर्वाक् और पेशस्कृत्ये दो नागरिक अन्धे थे। राजा पुरञ्जन आँखवाले नागरिकोंका अधिपति होनेपर भी इन्हींकी सहायतासे जहाँ-तहाँ जाता और सब प्रकारके कार्य करता था ॥ ५४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                          00000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

स यर्ह्यन्तःपुरगतो विषूचीनसमन्वितः ।
मोहं प्रसादं हर्षं वा याति जायात्मजोद्‍भवम् ॥ ५५ ॥
एवं कर्मसु संसक्तः कामात्मा वञ्चितोऽबुधः ।
महिषी यद् यद् ईहेत तत्तद् एवान्ववर्तत ॥ ५६ ॥
क्वचित्पिबन्त्यां पिबति मदिरां मदविह्वलः ।
अश्नन्त्यां क्वचिदश्नाति जक्षत्यां सह जक्षिति ॥ ५७ ॥
क्वचिद्‍गायति गायन्त्यां रुदत्यां रुदति क्वचित् ।
क्वचिद् हसन्त्यां हसति जल्पन्त्यामनु जल्पति ॥ ५८ ॥
क्वचिद् धावति धावन्त्यां तिष्ठन्त्यामनु तिष्ठति ।
अनु शेते शयानायां अन्वास्ते क्वचिदासतीम् ॥ ५९ ॥
क्वचित् श्रृणोति श्रृण्वन्त्यां पश्यन्त्यामनु पश्यति ।
क्वचित् जिघ्रति जिघ्रन्त्यां स्पृशन्त्यां स्पृशति क्वचित् । ॥ ६० ॥
क्वचिच्च शोचतीं जायां अनु शोचति दीनवत् ।
अनु हृष्यति हृष्यन्त्यां मुदितामनु मोदते । ॥ ६१ ॥
विप्रलब्धो महिष्यैवं सर्वप्रकृतिवञ्चितः ।
नेच्छन् अनुकरोत्यज्ञः क्लैब्यात् क्रीडामृगो यथा । ॥ ६२ ॥

 (राजा पुरञ्जन ) जब कभी अपने प्रधान सेवक विषूचीन के साथ अन्त:पुर में जाता, तब उसे स्त्री और पुत्रोंके कारण होनेवाले मोह, प्रसन्नता एवं हर्ष आदि विकारोंका अनुभव होता ॥ ५५ ॥ उसका चित्त तरह-तरहके कर्मोंमें फँसा हुआ था और काम-परवश होनेके कारण वह मूढ़ रमणीके द्वारा ठगा गया था। उसकी रानी जो-जो काम करती थी, वही वह भी करने लगता था ॥ ५६ ॥ वह जब मद्यपान करती, तब वह भी मदिरा पीता और मदसे उन्मत्त हो जाता था; जब वह भोजन करती, तब आप भी भोजन करने लगता और जब कुछ चबाती, तब आप भी वही वस्तु चबाने लगता था ॥ ५७ ॥ इसी प्रकार कभी उसके गानेपर गाने लगता, रोनेपर रोने लगता, हँसनेपर हँसने लगता और बोलनेपर बोलने लगता ॥ ५८ ॥ वह दौड़ती तो आप भी दौडऩे लगता, खड़ी होती तो आप भी खड़ा हो जाता, सोती तो आप भी उसीके साथ सो जाता और बैठती तो आप भी बैठ जाता ॥ ५९ ॥ कभी वह सुनने लगती तो आप भी सुनने लगता, देखती तो देखने लगता, सूँघती तो सूँघने लगता और किसी चीज को छूती तो आप भी छूने लगता ॥ ६० ॥ कभी उसकी प्रिया शोकाकुल होती तो आप भी अत्यन्त दीनके समान व्याकुल हो जाता; जब वह प्रसन्न होती, आप भी प्रसन्न हो जाता और उसके आनन्दित होनेपर आप भी आनन्दित हो जाता ॥ ६१ ॥ (इस प्रकार) राजा पुरञ्जन अपनी सुन्दरी रानीके द्वारा ठगा गया। सारा प्रकृतिवर्गपरिकर ही उसको धोखा देने लगा। वह मूर्ख विवश होकर इच्छा न होनेपर भी खेलके लिये घरपर पाले हुए बंदरके समान अनुकरण करता रहता ॥ ६२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे पुरंजनोपाख्याने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                          00000000000




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...