॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन
देवहूतिरुवाच –
पुरुषं प्रकृतिर्ब्रह्मन् न विमुञ्चति कर्हिचित् ।
अन्योन्यापाश्रयत्वाच्च नित्यत्वाद् अनयोः प्रभो ॥ १७ ॥
यथा गन्धस्य भूमेश्च न भावो व्यतिरेकतः ।
अपां रसस्य च यथा तथा बुद्धेः परस्य च ॥ १८ ॥
अकर्तुः कर्मबन्धोऽयं पुरुषस्य यदाश्रयः ।
गुणेषु सत्सु प्रकृतेः कैवल्यं तेष्वतः कथम् ॥ १९ ॥
क्वचित् तत्त्वावमर्शेन निवृत्तं भयमुल्बणम् ।
अनिवृत्तनिमित्तत्वात् पुनः प्रत्यवतिष्ठते ॥ २० ॥
देवहूतिने पूछा—प्रभो ! पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दूसरे के आश्रयसे रहनेवाले हैं, इसलिये प्रकृति तो पुरुषको कभी छोड़ ही नहीं सकती ॥ १७ ॥ ब्रह्मन् ! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जल की पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरे को छोडक़र नहीं रह सकते ॥ १८ ॥ अत: जिनके आश्रय से अकर्ता पुरुष को यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृतिके गुणों के रहते हुए उसे कैवल्यपद कैसे प्राप्त होगा ? ॥ १९ ॥ यदि तत्त्वोंका विचार करनेसे कभी यह संसारबन्धनका तीव्र भय निवृत्त हो भी जाय, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणोंका अभाव न होनेसे वह भय फिर उपस्थित हो सकता है ॥ २० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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