बुधवार, 19 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०८)

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन

क्वचिदुत्पुलकस्तूष्णीं आस्ते संस्पर्शनिर्वृतः ।
अस्पन्दप्रणयानन्द सलिलामीलितेक्षणः ॥ ४१ ॥
स उत्तमश्लोकपदारविन्दयोः
     निषेवयाकिञ्चनसङ्‌गलब्धया ।
तन्वन् परां निर्वृतिमात्मनो मुहुः
     दुसङ्‌गदीनस्य मनः शमं व्यधात् ॥ ४२ ॥
तस्मिन् महाभागवते महाभागे महात्मनि ।
हिरण्यकशिपू राजन् अकरोद् अघमात्मजे ॥ ४३ ॥

कभी भीतर-ही-भीतर भगवान्‌ का कोमल संस्पर्श अनुभव करके (प्रह्लाद)आनन्द में मग्न हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनन्द के आँसुओं से भरे रहते ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणकमलों की यह भक्ति अकिञ्चन भगवत्प्रेमी महात्माओं के सङ्ग से ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्द में मग्न रहते ही थे; जिन बेचारों का मन कुसङ्ग के कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे ॥ ४२ ॥ युधिष्ठिर ! प्रह्लाद भगवान्‌ के परम प्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटि के महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधु पुत्र को भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करने की चेष्टा करने लगा ॥ ४३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन

न्यस्तक्रीडनको बालो जडवत् तन्मनस्तया ।
कृष्णग्रहगृहीतात्मा न वेद जगदीदृशम् ॥ ३७ ॥
आसीनः पर्यटन् अश्नन् शयानः प्रपिबन् ब्रुवन् ।
नानुसन्धत्त एतानि गोविन्दपरिरम्भितः ॥ ३८ ॥
क्वचिद् रुदति वैकुण्ठ चिन्ताशबलचेतनः ।
क्वचिद् हसति तच्चिन्ता ह्लाद उद्‍गायति क्वचित् ॥ ३९ ॥
नदति क्वचिद् उत्कण्ठो विलज्जो नृत्यति क्वचित् ।
क्वचित्तद्‍भावनायुक्तः तन्मयोऽनुचकार ह ॥ ४० ॥

युधिष्ठिर ! प्रह्लाद बचपनमें ही खेल-कूद छोडक़र भगवान्‌ के ध्यान में जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान्‌ श्रीकृष्ण के अनुग्रहरूप ग्रह ने उनके हृदय को इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत् की कुछ सुध-बुध ही न रहती ॥ ३७ ॥ उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान्‌ मुझे अपनी गोद में लेकर आलिङ्गन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातों का ध्यान बिलकुल न रहता ॥ ३८ ॥ कभी-कभी भगवान्‌ मुझे छोडक़र चले गये, इस भावना में उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोर से रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेक से ठठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यान के मधुर आनन्द का अनुभव करके जोर से गाने लगते ॥ ३९ ॥ वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जा का त्याग करके प्रेम में छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीला के चिन्तन में इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हीं का अनुकरण करने लगते ॥ ४० ॥

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मंगलवार, 18 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन

यस्मिन्महद्‍गुणा राजन् गृह्यन्ते कविभिर्मुहुः ।
न तेऽधुना पिधीयन्ते यथा भगवतीश्वरे ॥ ३४ ॥
यं साधुगाथासदसि रिपवोऽपि सुरा नृप ।
प्रतिमानं प्रकुर्वन्ति किमुतान्ये भवादृशाः ॥ ३५ ॥
गुणैरलमसंख्येयै माहात्म्यं तस्य सूच्यते ।
वासुदेवे भगवति यस्य नैसर्गिकी रतिः ॥ ३६ ॥

जैसे भगवान्‌के गुण अनन्त हैं, वैसे ही प्रह्लादके श्रेष्ठ गुणों की भी कोई सीमा नहीं है। महात्मा लोग सदा से उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं ॥ ३४ ॥ युधिष्ठिर ! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परंतु फिर भी भक्तोंका चरित्र सुननेके लिये जब उन लोगोंकी सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तों को प्रह्लाद के समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है ॥ ३५ ॥ उनकी महिमा का वर्णन करने के लिये अगणित गुणों के कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं। केवल एक ही गुणभगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणों में स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमा को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है ॥ ३६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन

नारद उवाच -
इत्युक्ता लोकगुरुणा तं प्रणम्य दिवौकसः ।
न्यवर्तन्त गतोद्वेगा मेनिरे चासुरं हतम् ॥ २९ ॥
तस्य दैत्यपतेः पुत्राश्चत्वारः परमाद्‍भुताः ।
प्रह्लादोऽभून् महांन् तेषां गुणैर्महदुपासकः ॥ ३० ॥
ब्रह्मण्यः शीलसम्पन्नः सत्यसन्धो जितेन्द्रियः ।
आत्मवत्सर्वभूतानां एकः प्रियसुहृत्तमः ॥ ३१ ॥
दासवत्सन्नतार्याङ्‌घ्रिः पितृवद् दीनवत्सलः ।
भ्रातृवत्सदृशे स्निग्धो गुरुषु ईश्वरभावनः ॥ ३२ ॥
विद्यार्थरूपजन्माढ्यो मानस्तम्भविवर्जितः ॥ ३२ ॥
नोद्विग्नचित्तो व्यसनेषु निःस्पृहः
     श्रुतेषु दृष्टेषु गुणेष्ववस्तुदृक् ।
दान्तेन्द्रियप्राणशरीरधीः सदा
     प्रशान्तकामो रहितासुरोऽसुरः ॥ ३३ ॥

नारदजी कहते हैंसबके हृदयमें ज्ञानका सञ्चार करनेवाले भगवान्‌ने जब देवताओंको यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया ॥ २९ ॥
युधिष्ठिर ! दैत्यराज हिरण्यकशिपुके बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परंतु गुणों में सबसे बड़े थे। वे बड़े संतसेवी थे ॥ ३० ॥ ब्राह्मणभक्त, सौम्यस्वभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियों के साथ अपने ही समान समता का बर्ताव करते और सब के एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे ॥ ३१ ॥ बड़े लोगों के चरणों में सेवक की तरह झुककर रहते थे। गरीबों पर पिता के समान स्नेह रखते थे। बराबरी वालों से भाई के समान प्रेम करते और गुरुजनों में भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनता से सम्पन्न होनेपर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छू तक नहीं गयी थी ॥ ३२ ॥ बड़े-बड़े दु:खोंमें भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोक के विषयों को उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परंतु वे उन्हें नि:सार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मनमें किसी भी वस्तुकी लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वशमें थे। उनके चित्तमें कभी किसी प्रकारकी कामना नहीं उठती थी। जन्मसे असुर होनेपर भी उनमें आसुरी सम्पत्तिका लेश भी नहीं था ॥ ३३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...