॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – चौथा
अध्याय..(पोस्ट०८)
हिरण्यकशिपु
के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन
क्वचिदुत्पुलकस्तूष्णीं
आस्ते संस्पर्शनिर्वृतः ।
अस्पन्दप्रणयानन्द
सलिलामीलितेक्षणः ॥ ४१ ॥
स
उत्तमश्लोकपदारविन्दयोः
निषेवयाकिञ्चनसङ्गलब्धया ।
तन्वन्
परां निर्वृतिमात्मनो मुहुः
दुसङ्गदीनस्य मनः शमं व्यधात् ॥ ४२ ॥
तस्मिन्
महाभागवते महाभागे महात्मनि ।
हिरण्यकशिपू
राजन् अकरोद् अघमात्मजे ॥ ४३ ॥
कभी
भीतर-ही-भीतर भगवान् का कोमल संस्पर्श अनुभव करके (प्रह्लाद)आनन्द में मग्न हो
जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुले
नेत्र अविचल प्रेम और आनन्द के आँसुओं से भरे रहते ॥ ४१ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण के
चरणकमलों की यह भक्ति अकिञ्चन भगवत्प्रेमी महात्माओं के सङ्ग से ही प्राप्त होती
है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्द में मग्न रहते ही थे; जिन बेचारों का मन कुसङ्ग के कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे ॥ ४२ ॥ युधिष्ठिर ! प्रह्लाद
भगवान् के परम प्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटि के
महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधु पुत्र को भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करने की
चेष्टा करने लगा ॥ ४३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें