॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – चौथा
अध्याय..(पोस्ट०९)
हिरण्यकशिपु
के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन
युधिष्ठिर
उवाच -
देवर्ष
एतदिच्छामो वेदितुं तव सुव्रत ।
यदात्मजाय
शुद्धाय पितादात्साधवे ह्यघम् ॥ ४४ ॥
पुत्रान्
विप्रतिकूलान् स्वान् पितरः पुत्रवत्सलाः ।
उपालभन्ते
शिक्षार्थं नैवाघमपरो यथा ॥ ४५ ॥
किमुतानुवशान्
साधून् तादृशान् गुरुदेवतान् ।
एतत्कौतूहलं
ब्रह्मन् अस्माकं विधम प्रभो ।
पितुः
पुत्राय यद्द्वेषो मरणाय प्रयोजितः ॥ ४६ ॥
युधिष्ठिरने
पूछा—नारदजी ! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि
हिरण्यकशिपु ने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्र से द्रोह क्यों किया ॥४४॥
पिता तो स्वभाव से ही अपने पुत्रों से प्रेम करते हैं। यदि पुत्र कोई उलटा काम
करता है, तो वे उसे शिक्षा देने के लिये ही डाँटते हैं,
शत्रु की तरह वैर-विरोध तो नहीं करते ॥४५॥ फिर प्रह्लाद–जी जैसे
अनुकूल, शुद्धहृदय एवं गुरुजनों में भगवद्भाव करने वाले
पुत्रों से भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है । नारदजी ! आप
सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिता ने द्वेष के कारण
पुत्र को मार डालना चाहा । आप कृपा करके मेरा यह कुतूहल शान्त कीजिये॥४६॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लाददचरिते
चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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