॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
भगवान् वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना
अत्रापि बह्वृचैर्गीतं शृणु मेऽसुरसत्तम ।
सत्यमोमितियत्प्रोक्तं यन्नेत्याहानृतं हि तत् ॥ ३८ ॥
सत्यं पुष्पफलं विद्याद् आत्मवृक्षस्य गीयते ।
वृक्षेऽजीवति तन्न स्यात् अनृतं मूलमात्मनः ॥ ३९ ॥
तद् यथा वृक्ष उन्मूलः शुष्यति उद्वर्ततेऽचिरात् ।
एवं नष्टानृतः सद्य आत्मा शुष्येन्न संशयः ॥ ४० ॥
पराग् रिक्तमपूर्णं वा अक्षरं यत् तदोमिति ।
यत्किञ्चित् ओमिति ब्रूयात् तेन रिच्येत वै पुमान् ।
भिक्षवे सर्वमोंकुर्वन् नालं कामेन चात्मने ॥ ४१ ॥
अथैतत्पूर्णमभ्यात्मं यच्च नेति अनृतं वचः ।
सर्वं नेति अनृतं ब्रूयात् स दुष्कीर्तिः श्वसन्मृतः ॥ ४२ ॥
स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसंकटे ।
गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्यात् जुगुप्सितम् ॥ ४३ ॥
असुरशिरोमणे ! यदि तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा टूट जानेकी
चिन्ता हो,
तो मैं इस विषयमें तुम्हें कुछ ऋग्वेदकी श्रुतियोंका आशय
सुनाता हूँ,
तुम सुनो। श्रुति कहती है—‘किसीको कुछ देनेकी बात स्वीकार कर लेना सत्य है और नकार जाना अर्थात् अस्वीकार
कर देना असत्य है ॥ ३८ ॥ यह शरीर एक वृक्ष है और सत्य इसका फल-फूल है। परंतु यदि
वृक्ष ही न रहे तो फल-फूल कैसे रह सकते हैं ? क्योंकि नकार जाना,
अपनी वस्तु दूसरेको न देना, दूसरे शब्दोंमें अपना संग्रह बचाये रखना—यही शरीररूप वृक्षका मूल है ॥ ३९ ॥ जैसे जड़ न रहनेपर वृक्ष सूखकर थोड़े ही
दिनोंमें गिर जाता है,
उसी प्रकार यदि धन देनेसे अस्वीकार न किया जाय तो यह जीवन
सूख जाता है—
इसमें सन्देह नहीं ॥ ४० ॥ ‘हाँ मैं दूँगा’—यह वाक्य ही धनको दूर हटा देता है। इसलिये इसका उच्चारण ही
अपूर्ण अर्थात् धनसे खाली कर देनेवाला है। यही कारण है कि जो पुरुष ‘हाँ मैं दूगाँ’— ऐसा कहता है,
वह धनसे खाली हो जाता है। जो याचकको सब कुछ देना स्वीकार कर
लेता है,
वह अपने लिये भोगकी कोई सामग्री नहीं रख सकता ॥ ४१ ॥ इसके
विपरीत ‘मैं नहीं दूँगा’— यह जो अस्वीकारात्मक असत्य है, वह अपने धनको सुरक्षित रखने तथा पूर्ण करनेवाला है। परंतु ऐसा सब समय नहीं
करना चाहिये। जो सबसे,
सभी वस्तुओंके लिये नहीं करता रहता है, उसकी अपकीर्ति हो जाती है। वह तो जीवित रहनेपर भी मृतकके
समान ही है ॥ ४२ ॥ स्त्रियोंको प्रसन्न करनेके लिये, हास-परिहासमें,
विवाहमें, कन्या आदिकी
प्रशंसा करते समय,
अपनी जीविका की रक्षा के लिये, प्राणसंकट उपस्थित होने पर, गौ और ब्राह्मण के हितके लिये तथा किसी को मृत्यु से बचानेके लिये असत्य-भाषण
भी उतना निन्दनीय नहीं है ॥ ४३ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से