सोमवार, 18 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

श्रीभगवानुवाच -
सप्तमे ह्यद्यतनाद् ऊर्ध्वं अहन्येतदरिन्दम ।
निमंक्ष्यत्यप्ययाम्भोधौ त्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम् ॥ ३२ ॥
त्रिलोक्यां लीयमानायां संवर्ताम्भसि वै तदा ।
उपस्थास्यति नौः काचिद् विशाला त्वां मयेरिता ॥ ३३ ॥
त्वं तावदोषधीः सर्वा बीजानि उच्चावचानि च ।
सप्तर्षिभिः परिवृतः सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ३४ ॥
आरुह्य बृहतीं नावं विचरिष्यस्यविक्लवः ।
एकार्णवे निरालोके ऋषीणामेव वर्चसा ॥ ३५ ॥
दोधूयमानां तां नावं समीरेण बलीयसा ।
उपस्थितस्य मे शृंगे निबध्नीहि महाहिना ॥ ३६ ॥
अहं त्वां ऋषिभिः साकं सहनावमुदन्वति ।
विकर्षन् विचरिष्यामि यावद्‍ब्राह्मी निशा प्रभो ॥ ३७ ॥
मदीयं महिमानं च परं ब्रह्मेति शब्दितम् ।
वेत्स्यसि अनुगृहीतं मे संप्रश्नैर्विवृतं हृदि ॥ ३८ ॥
इत्थमादिश्य राजानं हरिरन्तरधीयत ।
सोऽन्ववैक्षत तं कालं यं हृषीकेश आदिशत् ॥ ३९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ अपने अनन्य प्रेमी भक्तोंपर अत्यन्त प्रेम करते हैं। जब जगत्पति मत्स्यभगवान्‌ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रतकी यह प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करनेके लिये, साथ ही कल्पान्तके प्रलयकालीन समुद्रमें विहार करनेके लिये उनसे कहा ॥ ३१ ॥
श्रीभगवान्‌ने कहासत्यव्रत ! आजसे सातवें दिन भूर्लोक आदि तीनों लोक प्रलयके समुद्रमें डूब जायँगे ॥ ३२ ॥ उस समय जब तीनों लोक प्रलयकालकी जलराशिमें डूबने लगेंगे, तब मेरी प्रेरणासे तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी ॥ ३३ ॥ उस समय तुम समस्त प्राणियोंके सूक्ष्मशरीरोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उस नौकापर चढ़ जाना और समस्त धान्य तथा छोटे-बड़े अन्य प्रकारके बीजोंको साथ रख लेना ॥ ३४ ॥ उस समय सब ओर एकमात्र महासागर लहराता होगा। प्रकाश नहीं होगा। केवल ऋषियोंकी दिव्य ज्योतिके सहारे ही बिना किसी प्रकारकी विकलताके तुम उस बड़ी नावपर चढक़र चारों ओर विचरण करना ॥ ३५ ॥ जब प्रचण्ड आँधी चलनेके कारण नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूपमें वहाँ आ जाऊँगा और तुमलोग वासुकि नागके द्वारा उस नावको मेरे सींगमें बाँध देना ॥ ३६ ॥ सत्यव्रत ! इसके बाद जबतक ब्रह्माजीकी रात रहेगी, तबतक मैं ऋषियोंके साथ तुम्हें उस नावमें बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्रमें विचरण करूँगा ॥ ३७ ॥ उस समय जब तुम प्रश्र करोगे, तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा। मेरे अनुग्रहसे मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम परब्रह्महै, तुम्हारे हृदयमें प्रकट हो जायगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे ॥ ३८ ॥ भगवान्‌ राजा सत्यव्रतको यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये। अत: अब राजा सत्यव्रत उसी समयकी प्रतीक्षा करने लगे, जिसके लिये भगवान्‌ ने आज्ञा दी थी ॥३९॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

एवं विमोहितस्तेन वदता वल्गुभारतीम् ।
तमाह को भवान् अस्मान् मत्स्यरूपेण मोहयन् ॥ २५ ॥
नैवं वीर्यो जलचरो दृष्टोऽस्माभिः श्रुतोऽपि वा ।
यो भवान् योजनशतं अह्नाभिव्यानशे सरः ॥ २६ ॥
नूनं त्वं भगवान् साक्षात् हरिर्नारायणोऽव्ययः ।
अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं जलौकसाम् ॥ २७ ॥
नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ स्थित्युत्पत्त्यप्ययेश्वर ।
भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो ह्यात्मगतिर्विभो ॥ २८ ॥
सर्वे लीलावतारास्ते भूतानां भूतिहेतवः ।
ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थं भवता धृतम् ॥ २९ ॥
न तेऽरविन्दाक्ष पदोपसर्पणं
     मृषा भवेत्सर्वसुहृत् प्रियात्मनः ।
यथेतरेषां पृथगात्मनां सतां
     अदीदृशो यद्वपुरद्‍भुतं हि नः ॥ ३० ॥

मत्स्य भगवान्‌ की यह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा— ‘मत्स्य का रूप धारण करके मुझे मोहित करनेवाले आप कौन हैं ? ॥ २५ ॥ आपने एक ही दिनमें चार सौ कोस के विस्तारका सरोवर घेर लिया। आजतक ऐसी शक्ति रखनेवाला जलचर जीव तो न मैंने कभी देखा था और न सुना ही था ॥ २६ ॥ अवश्य ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही आपने जलचरका रूप धारण किया है ॥ २७ ॥ पुरुषोत्तम ! आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके स्वामी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! हम शरणागत भक्तोंके लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं ॥ २८ ॥ यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियोंके अभ्युदयके लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्यसे ग्रहण किया है ॥ २९ ॥ कमलनयन प्रभो ! जैसे देहादि अनात्मपदार्थों में अपनेपन का अभिमान करनेवाले संसारी पुरुषोंका आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणोंकी शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके अहैतुक प्रेमी, परम प्रियतम और आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद्भुत है ॥ ३० ॥

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रविवार, 17 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

तत आदाय सा राज्ञा क्षिप्ता राजन् सरोवरे ।
तद् आवृत्यात्मना सोऽयं महामीनोऽन्ववर्धत ॥ २१ ॥
नैतन्मे स्वस्तये राजन् उदकं सलिलौकसः ।
निधेहि रक्षायोगेन ह्रदे मामविदासिनि ॥ २२ ॥
इत्युक्तः सोऽनयन्मत्स्यं तत्र तत्राविदासिनि ।
जलाशयेऽसम्मितं तं समुद्रे प्राक्षिपज्झषम् ॥ २३ ॥
क्षिप्यमाणस्तमाहेदं इह मां मकरादयः ।
अदन्त्यतिबला वीर मां नेहोत्स्रष्टुमर्हसि ॥ २४ ॥

परीक्षित्‌ ! सत्यव्रतने वहाँसे उस मछलीको उठाकर एक सरोवरमें डाल दिया। परंतु वह थोड़ी ही देरमें इतनी बढ़ गयी कि उसने एक महामत्स्य का आकार धारण कर उस सरोवरके जलको घेर लिया ॥ २१ ॥ और कहा—‘राजन् ! मैं जलचर प्राणी हूँ। इस सरोवरका जल भी मेरे सुखपूर्वक रहनेके लिये पर्याप्त नहीं है। इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे किसी अगाध सरोवरमें रख दीजिये ॥ २२ ॥ मत्स्यभगवान्‌के इस प्रकार कहनेपर वे एक-एक करके उन्हें कई अटूट जलवाले सरोवरोंमें ले गये; परंतु जितना बड़ा सरोवर होता, उतने ही बड़े वे बन जाते। अन्तमें उन्होंने उन लीलामत्स्यको समुद्रमें छोड़ दिया ॥ २३ ॥ समुद्रमें डालते समय मत्स्यभगवान्‌ने सत्यव्रतसे कहा—‘वीर ! समुद्रमें बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे मुझे खा जायँगे, इसलिये आप मुझे समुद्रके जलमें मत छोडिय़े॥ २४ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

तमात्मनोऽनुग्रहार्थं प्रीत्या मत्स्यवपुर्धरम् ।
अजानन् रक्षणार्थाय शफर्याः स मनो दधे ॥ १५ ॥
तस्या दीनतरं वाक्यं आश्रुत्य स महीपतिः ।
कलशाप्सु निधायैनां दयालुर्निन्य आश्रमम् ॥ १६ ॥
सा तु तत्रैकरात्रेण वर्धमाना कमण्डलौ ।
अलब्ध्वाऽऽत्मावकाशं वा इदमाह महीपतिम् ॥ १७ ॥
नाहं कमण्डलौ अवस्मिन् कृच्छ्रं वस्तुमिहोत्सहे ।
कल्पयौकः सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम् ॥ १८ ॥
स एनां तत आदाय न्यधादौदञ्चनोदके ।
तत्र क्षिप्ता मुहूर्तेन हस्तत्रयमवर्धत ॥ १९ ॥
न मे एतद् अलं राजन् सुखं वस्तुमुदञ्चनम् ।
पृथु देहि पदं मह्यं यत्त्वाहं शरणं गता ॥ २० ॥

राजा सत्यव्रतको इस बातका पता नहीं था कि स्वयं भगवान्‌ मुझपर प्रसन्न होकर कृपा करनेके लिये मछलीके रूपमें पधारे हैं। इसलिये उन्होंने उस मछलीकी रक्षाका मन-ही-मन संकल्प किया ॥ १५ ॥ राजा सत्यव्रतने उस मछलीकी अत्यन्त दीनतासे भरी बात सुनकर बड़ी दयासे उसे अपने पात्रके जलमें रख लिया और अपने आश्रमपर ले आये ॥ १६ ॥ आश्रमपर लानेके बाद एक रातमें ही वह मछली उस कमण्डलुमें इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। उस समय मछली ने राजासे कहा॥ १७ ॥ अब तो इस कमण्डलुमें मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अत: मेरे लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ॥ १८ ॥ राजा सत्यव्रतने मछलीको कमण्डलुसे निकालकर एक बहुत बड़े पानीके मटकेमें रख दिया। परंतु वहाँ डालनेपर वह मछली दो ही घड़ीमें तीन हाथ बढ़ गयी ॥ १९ ॥ फिर उसने राजा सत्यव्रत से कहा—‘राजन् ! अब यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, इसलिये मेरे रहनेयोग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो॥ २० ॥

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शनिवार, 16 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा
तत्र राजऋषिः कश्चित् नाम्ना सत्यव्रतो महान् ।
नारायणपरोऽतप्यत् तपः स सलिलाशनः ॥ १० ॥
योऽसौ अस्मिन् महाकल्पे तनयः स विवस्वतः ।
श्राद्धदेव इति ख्यातो मनुत्वे हरिणार्पितः ॥ ११ ॥
एकदा कृतमालायां कुर्वतो जलतर्पणम् ।
तस्याञ्जलि उदके काचित् शफर्येकाभ्यपद्यत ॥ १२ ॥
सत्यव्रतोऽञ्जलिगतां सह तोयेन भारत ।
उत्ससर्ज नदीतोये शफरीं द्रविडेश्वरः ॥ १३ ॥
तं आह सातिकरुणं महाकारुणिकं नृपम् ।
यादोभ्यो ज्ञातिघातिभ्यो दीनां मां दीनवत्सल ।
कथं विसृजसे राजन् भीतामस्मिन् सरिज्जले ॥ १४ ॥

परीक्षित्‌ ! उस समय सत्यव्रत नामके एक बड़े उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे ॥ १० ॥ वही सत्यव्रत वर्तमान महाकल्पमें विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेवके नामसे विख्यात हुए और उन्हें भगवान्‌ ने वैवस्वत मनु बना दिया ॥ ११ ॥ एक दिन वे राजर्षि कृतमाला नदीमें जलसे तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अञ्जलिके जलमें एक छोटी-सी मछली आ गयी ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! द्रविड देशके राजा सत्यव्रतने अपनी अञ्जलिमें आयी हुई मछलीको जलके साथ ही फिरसे नदीमें डाल दिया ॥ १३ ॥ उस मछलीने बड़ी करुणाके साथ परम दयालु राजा सत्यव्रतसे कहा—‘राजन् ! आप बड़े दीनदयालु हैं। आप जानते ही हैं कि जलमें रहनेवाले जन्तु अपनी जातिवालोंको भी खा डालते हैं। मैं उनके भयसे अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ। आप मुझे फिर इसी नदीके जलमें क्यों छोड़ रहे हैं ? ॥ १४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

श्रीशुक उवाच -
गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वरः ।
रक्षां इच्छन् तनु धत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि ॥ ५ ॥
उच्चावचेषु भूतेषु चरन् वायुरिवेश्वरः ।
नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्धियो गुणैः ॥ ६ ॥
आसीद् अतीतकल्पान्ते ब्राह्मो नैमित्तिको लयः ।
समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो नृप ॥ ७ ॥
कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली ।
मुखतो निःसृतान् वेदान् हयग्रीवोऽन्तिकेऽहरत् ॥ ८ ॥
ज्ञात्वा तद् दानवेन्द्रस्य हयग्रीवस्य चेष्टितम् ।
दधार शफरीरूपं भगवान् हरिरीश्वरः ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! यों तो भगवान्‌ सब के एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थ की रक्षाके लिये शरीर धारण किया करते हैं ॥ ५ ॥ वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायुकी तरह नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे लीला करते रहते हैं। परंतु उन-उन प्राणियोंके बुद्धिगत गुणोंसे वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तवमें समस्त प्राकृत गुणोंसे रहितनिर्गुण हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! पिछले कल्पके अन्तमें ब्रह्माजीके सो जानेके कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्रमें डूब गये थे ॥ ७ ॥ प्रलयकाल आ जाने के कारण ब्रह्माजीको नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्यने उन्हें योगबलसे चुरा लिया ॥ ८ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरिने दानवराज हयग्रीव की यह चेष्टा जान ली । इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

श्रीराजोवाच -
भगवन् श्रोतुमिच्छामि हरेरद्‍भुतकर्मणः ।
अवतारकथामाद्यां मायामत्स्यविडम्बनम् ॥ १ ॥
यदर्थमदधाद् रूपं मात्स्यं लोकजुगुप्सितम् ।
तमःप्रकृतिदुर्मर्षं कर्मग्रस्त इवेश्वरः ॥ २ ॥
एतन्नो भगवन्सर्वं यथावद्वक्तुमर्हसि ।
उत्तमश्लोकचरितं सर्वलोकसुखावहम् ॥ ३ ॥

श्रीसूत उवाच -
इत्युक्तो विष्णुरातेन भगवान् बान्बादरायणिः ।
उवाच चरितं विष्णोः मत्स्यरूपेण यत्कृतम् ॥ ४ ॥

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवान्‌ के कर्म बड़े अद्भुत हैं। उन्होंने एक बार अपनी योगमाया से मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुन्दर लीला की थी, मैं उनके उसी आदि-अवतारकी कथा सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ भगवन् ! मत्स्ययोनि एक तो यों ही लोकनिन्दित है, दूसरे तमोगुणी और असह्य परतन्त्रतासे युक्त भी है। सर्वशक्तिमान् होनेपर भी भगवान्‌ने कर्मबन्धनमें बँधे हुए जीवकी तरह यह मत्स्यका रूप क्यों धारण किया ? ॥ २ ॥ भगवन् ! महात्माओंके कीर्तनीय भगवान्‌का चरित्र समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाला है। आप कृपा करके उनकी वह सब लीला हमारे सामने पूर्णरूपसे वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥
सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्‌ने भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीसे यह प्रश्र किया, तब उन्होंने विष्णुभगवान्‌का वह चरित्र, जो उन्होंने मत्स्यावतार धारण करके किया था, वर्णन किया ॥ ४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना

सर्वं एतन्मयाख्यातं भवतः कुलनन्दन ।
उरुक्रमस्य चरितं श्रोतॄणां अघमोचनम् ॥ २८ ॥
पारं महिम्न उरुविक्रमतो गृणानो
     यः पार्थिवानि विममे स रजांसि मर्त्यः ।
किं जायमान उत जात उपैति मर्त्य
     इत्याह मन्त्रदृगृषिः पुरुषस्य यस्य ॥ २९ ॥
य इदं देवदेवस्य हरेरद्‍भुतकर्मणः ।
अवतारानुचरितं श्रृण्वन्याति परां गतिम् ॥ ३० ॥
क्रियमाणे कर्मणीदं दैवे पित्र्येऽथ मानुषे ।
यत्र यत्रानुकीर्त्येत तत्तेषां सुकृतं विदुः ॥ ३१ ॥

परीक्षित्‌ ! तुम्हें मैंने भगवान्‌ की यह सब लीला सुनायी। इससे सुननेवालों के सारे पाप छूट जाते हैं ॥ २८ ॥ भगवान्‌ की लीलाएँ अनन्त हैं, उनकी महिमा अपार है। जो मनुष्य उसका पार पाना चाहता है, वह मानो पृथ्वीके परमाणुओंको गिन डालना चाहता है। भगवान्‌के सम्बन्धमें मन्त्रद्रष्टा महर्षि वसिष्ठने वेदोंमें कहा है कि ऐसा पुरुष न कभी हुआ, न है और न होगा जो भगवान्‌की महिमाका पार पा सके॥ २९ ॥ देवताओंके आराध्यदेव अद्भुतलीलाधारी वामनभगवान्‌के अवतार-चरित्रका जो श्रवण करता है, उसे परम गतिकी प्राप्ति होती है ॥ ३० ॥ देवयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ किसी भी कर्मका अनुष्ठान करते समय जहाँ-जहाँ भगवान्‌की इस लीलाका कीर्तन होता है, वह कर्म सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। यह बड़े-बड़े महात्माओंका अनुभव है ॥ ३१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे वामनावतारचरिते त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...