॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
भगवान् के मत्स्यावतार की कथा
तमात्मनोऽनुग्रहार्थं प्रीत्या मत्स्यवपुर्धरम् ।
अजानन् रक्षणार्थाय शफर्याः स मनो दधे ॥ १५ ॥
तस्या दीनतरं वाक्यं आश्रुत्य स महीपतिः ।
कलशाप्सु निधायैनां दयालुर्निन्य आश्रमम् ॥ १६ ॥
सा तु तत्रैकरात्रेण वर्धमाना कमण्डलौ ।
अलब्ध्वाऽऽत्मावकाशं वा इदमाह महीपतिम् ॥ १७ ॥
नाहं कमण्डलौ अवस्मिन् कृच्छ्रं वस्तुमिहोत्सहे ।
कल्पयौकः सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम् ॥ १८ ॥
स एनां तत आदाय न्यधादौदञ्चनोदके ।
तत्र क्षिप्ता मुहूर्तेन हस्तत्रयमवर्धत ॥ १९ ॥
न मे एतद् अलं राजन् सुखं वस्तुमुदञ्चनम् ।
पृथु देहि पदं मह्यं यत्त्वाहं शरणं गता ॥ २० ॥
राजा सत्यव्रतको इस बातका पता नहीं था कि स्वयं भगवान्
मुझपर प्रसन्न होकर कृपा करनेके लिये मछलीके रूपमें पधारे हैं। इसलिये उन्होंने उस
मछलीकी रक्षाका मन-ही-मन संकल्प किया ॥ १५ ॥ राजा सत्यव्रतने उस मछलीकी अत्यन्त
दीनतासे भरी बात सुनकर बड़ी दयासे उसे अपने पात्रके जलमें रख लिया और अपने आश्रमपर
ले आये ॥ १६ ॥ आश्रमपर लानेके बाद एक रातमें ही वह मछली उस कमण्डलुमें इतनी बढ़
गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। उस समय मछली ने राजासे कहा— ॥ १७ ॥ ‘अब तो इस
कमण्डलुमें मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अत: मेरे लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ’ ॥ १८ ॥ राजा
सत्यव्रतने मछलीको कमण्डलुसे निकालकर एक बहुत बड़े पानीके मटकेमें रख दिया। परंतु
वहाँ डालनेपर वह मछली दो ही घड़ीमें तीन हाथ बढ़ गयी ॥ १९ ॥ फिर उसने राजा
सत्यव्रत से कहा—‘राजन् ! अब यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें
मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, इसलिये मेरे रहनेयोग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो’ ॥ २० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
जय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएं🌸💖🌷जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण