॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
विदर्भके वंशका वर्णन
कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः
कुकुरस्य सुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः ॥ १९ ॥
कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः
अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः ॥ २० ॥
तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः ॥ २१ ॥
देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः
तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप ॥ २२ ॥
शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः ॥ २३ ॥
कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा
राष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः ॥ २४ ॥
कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः ॥ २५ ॥
शूरो विदूरथादासीद्भजमानस्तु तत्सुतः
शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः ॥ २६ ॥
देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ॥ २७ ॥
तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ॥ २८ ॥
सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम्
देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि ॥ २९ ॥
वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम्
पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः ॥ ३० ॥
राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः
कुन्तेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात् ॥ ३१ ॥
साप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात्
तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिः ॥ ३२ ॥
तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा
प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे ॥ ३३ ॥
अमोघं देवसन्दर्शमादधे त्वयि चात्मजम्
योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहं ते सुमध्यमे ॥ ३४ ॥
इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः
सद्यः कुमारः सञ्जज्ञे द्वितीय इव भास्करः ॥ ३५ ॥
तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती
प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुर्वै सत्यविक्रमः ॥ ३६ ॥
सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए—कुकुर, भजमान, शुचि और
कम्बलबर्हि। उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा,
विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ। तुम्बुरु गन्धर्वके साथ
अनुकी बड़ी मित्रता थी। अनुका पुत्र अन्धक, अन्धकका दुन्दुभि,
दुन्दुभिका अरिद्योत, अरिद्योतका पुनर्वसु और
पुनर्वसुके आहुक नामका एक पुत्र तथा आहुकी नामकी एक कन्या हुई। आहुकके दो पुत्र
हुए—देवक और उग्रसेन। देवकके चार पुत्र हुए ॥ १९—२१ ॥ देववान्, उपदेव, सुदेव और
देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं—धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा,
श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा
और देवकी। वसुदेवजीने इन सबके साथ विवाह किया था ॥ २२-२३ ॥ उग्रसेन के नौ लडक़े थे—कंस, सुनामा, न्यग्रोध,
कङ्क, शङ्कु, सुहू,
राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान् ॥ २४ ॥
उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं—कंसा, कंसवती,
कङ्का, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह
देवभाग आदि वसुदेवजीके छोटे भाइयोंसे हुआ था ॥ २५ ॥
चित्ररथके पुत्र विदूरथसे शूर, शूरसे भजमान्, भजमान्से शिनि, शिनिसे स्वयम्भोज और स्वयम्भोजसे हृदीक हुए ॥ २६ ॥ हृदीकसे तीन पुत्र हुए—देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा। देवमीढके पुत्र शूरकी पत्नीका नाम था मारिषा ॥ २७ ॥ उन्होंने उसके गर्भसे दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये—वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृञ्जय, श्यामक, कङ्क, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेवजीके जन्मके समय देवताओंके नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अत: वे ‘आनकदुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्णके पिता हुए। वसुदेव आदिकी पाँच बहनें भी थीं—पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। वसुदेवके पिता शूरसेनके एक मित्र थे—कुन्तिभोज। कुन्तिभोजके कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेनने उन्हें पृथा नामकी अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी ॥ २८—३१ ॥ पृथाने दुर्वासा ऋषिको प्रसन्न करके उनसे देवताओंको बुलानेकी विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्याके प्रभावकी परीक्षा लेनेके लिये पृथाने परम पवित्र भगवान् सूर्यका आवाहन किया ॥ ३२ ॥ उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्तीका हृदय विस्मयसे भर गया। उसने कहा—‘भगवन् ! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करनेके लिये ही इस विद्याका प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं’ ॥ ३३ ॥ सूर्यदेवने कहा—‘देवि ! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिये हे सुन्दरी ! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूँगा’ ॥ ३४ ॥ यह कहकर भगवान् सूर्यने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखनेमें दूसरे सूर्यके समान जान पड़ता था ॥ ३५ ॥ पृथा लोकनिन्दासे डर गयी। इसलिये उसने बड़े दु:खसे उस बालकको नदीके जलमें छोड़ दिया। परीक्षित् ! उसी पृथाका विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डुसे हुआ था, जो वास्तवमें बड़े सच्चे वीर थे ॥ ३६ ॥
चित्ररथके पुत्र विदूरथसे शूर, शूरसे भजमान्, भजमान्से शिनि, शिनिसे स्वयम्भोज और स्वयम्भोजसे हृदीक हुए ॥ २६ ॥ हृदीकसे तीन पुत्र हुए—देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा। देवमीढके पुत्र शूरकी पत्नीका नाम था मारिषा ॥ २७ ॥ उन्होंने उसके गर्भसे दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये—वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृञ्जय, श्यामक, कङ्क, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेवजीके जन्मके समय देवताओंके नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अत: वे ‘आनकदुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्णके पिता हुए। वसुदेव आदिकी पाँच बहनें भी थीं—पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। वसुदेवके पिता शूरसेनके एक मित्र थे—कुन्तिभोज। कुन्तिभोजके कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेनने उन्हें पृथा नामकी अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी ॥ २८—३१ ॥ पृथाने दुर्वासा ऋषिको प्रसन्न करके उनसे देवताओंको बुलानेकी विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्याके प्रभावकी परीक्षा लेनेके लिये पृथाने परम पवित्र भगवान् सूर्यका आवाहन किया ॥ ३२ ॥ उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्तीका हृदय विस्मयसे भर गया। उसने कहा—‘भगवन् ! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करनेके लिये ही इस विद्याका प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं’ ॥ ३३ ॥ सूर्यदेवने कहा—‘देवि ! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिये हे सुन्दरी ! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूँगा’ ॥ ३४ ॥ यह कहकर भगवान् सूर्यने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखनेमें दूसरे सूर्यके समान जान पड़ता था ॥ ३५ ॥ पृथा लोकनिन्दासे डर गयी। इसलिये उसने बड़े दु:खसे उस बालकको नदीके जलमें छोड़ दिया। परीक्षित् ! उसी पृथाका विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डुसे हुआ था, जो वास्तवमें बड़े सच्चे वीर थे ॥ ३६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से