बुधवार, 10 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वसुदेवजीके पास श्रीनारदजीका आना और उन्हें

राजा जनक तथा नौ योगीश्वरोंका संवाद सुनाना

 

श्रीशुक उवाच -

 

गोविन्दभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह ।

 अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः ॥ १ ॥

 को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकन्दचरणम्बुजम् ।

 न भजेत् सर्वतोमृत्युः उपास्यममरोत्तमैः ॥ २ ॥

 तमेकदा तु देवर्षिं वसुदेवो गृहागतम् ।

 अर्चितं सुखमासीनमभिवाद्येदमब्रवीत् ॥ ३ ॥

 

 श्रीवसुदेव उवाच

 भगवन् भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम् ।

 कृपणानां यथा पित्रोः उत्तमश्लोकवर्त्मनाम् ॥ ४ ॥

 भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च ।

 सुखायैव हि साधूनां त्वादृशामच्युतात्मनाम् ॥ ५ ॥

 भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान् ।

 छायेव कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः ॥ ६ ॥

 ब्रह्मन् तथापि पृच्छामो धर्मान् भागवतांस्तव ।

 यान् श्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यो मुच्यते सर्वतो भयात् ॥ ७ ॥

 अहं किल पुरानन्तं प्रजार्थो भुवि मुक्तिदम् ।

 अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया ॥ ८ ॥

 यथा विचित्रव्यसनाद् भवद्‌भिः विश्वतोभयात् ।

 मुच्येम ह्यञ्जसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत ॥ ९ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

 राजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता ।

 प्रीतस्तमाह देवर्षिः हरेः संस्मारितो गुणैः ॥ १० ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

 सम्यगेतद्व्यवसितं भवता सात्वतर्षभ ।

 यत् पृच्छसे भागवतान् धर्मान् त्वं विश्वभावनान् ॥ ११ ॥

 श्रुतोऽनुपठितो ध्यात आदृतो वानुमोदितः ।

 सद्यः पुनाति सद्धर्मो देव विश्वद्रुहोऽपि हि ॥ १२ ॥

 त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।

 स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम ॥ १३ ॥

 अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम् ।

 आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मनः ॥ १४ ॥

 प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः ।

 तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिः ऋषभस्तत्सुतस्स्मृतः ॥ १५ ॥

 तमाहुः वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।

 अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् ॥ १६ ॥

 तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः ।

 विख्यातं वर्षमेतद्यत् नाम्ना भारतमद्‍भुतम् ॥ १७ ॥

 स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम् ।

 उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः ॥ १८ ॥

 तेषां नव नवद्वीप-पतयोऽस्य समन्ततः ।

 कर्मतन्त्रप्रणेतार एकाशीतिर्द्विजातयः ॥ १९ ॥

 नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः ।

 श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदाः ॥ २० ॥

 कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः ।

 आविहोत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः ॥ २१ ॥

 त एते भगवद्‌रूपं विश्वं सदसदात्मकम् ।

 आत्मनोऽव्यतिरेकेण पश्यन्तो व्यचरन् महीम् ॥ २२ ॥

 अव्याहतेष्टगतयः सुरसिद्धसाध्य-

 गन्धर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान् ।

 मुक्ताश्चरन्ति मुनि-चारण-भूतनाथ-

 विद्याधर-द्विज-गवां भुवनानि कामम् ॥ २३ ॥

 त एकदा निमेः सत्रं उपजग्मुः यदृच्छया ।

 वितायमानं ऋषिभिः अजनाभेर्महात्मनः ॥ २४ ॥

 तान् दृष्ट्वा सूर्यसङ्काशान् महाभागवतान् नृप ।

 यजमानोऽग्नयो विप्राः सर्व एवोपतस्थिरे ॥ २५ ॥

 विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरायणान् ।

 प्रीतः संपूजयाञ्चक्रे आसनस्थान् यथार्हतः ॥ २६ ॥

 तान् रोचमानान् स्वरुचा ब्रह्मपुत्रोपमान् नव ।

 पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृपः ॥ २७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुरुनन्दन ! देवर्षि नारदके मनमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सन्निधिमें रहनेकी बड़ी लालसा थी। इसलिये वे श्रीकृष्णके निज बाहुओंसे सुरक्षित द्वारकामें—जहाँ दक्ष आदिके शापका कोई भय नहीं था, विदा कर देनेपर भी पुन:-पुन: आकर प्राय: रहा ही करते थे ॥ १ ॥ राजन् ! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हों और वह भगवान्‌के ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवताओंके भी उपास्य चरणकमलोंकी दिव्य गन्ध, मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मङ्गलमय ध्वनिका सेवन करना न चाहे ? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओरसे मृत्युसे ही घिरा हुआ है ॥ २ ॥ एक दिनकी बात है, देवर्षि नारद वसुदेवजीके यहाँ पधारे। वसुदेवजीने उनका अभिवादन किया तथा आरामसे बैठ जानेपर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुन: प्रणाम करके उनसे यह बात कही ॥ ३ ॥

वसुदेवजीने कहा—संसारमें माता-पिताका आगमन पुत्रोंके लिये और भगवान्‌की ओर अग्रसर होनेवाले साधु-संतोंका पदार्पण प्रपञ्चमें उलझे हुए दीन-दुखियोंके लिये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मङ्गलमय होता है। परन्तु भगवन् ! आप तो स्वयं भगवन्मय, भगवत्स्वरूप हैं। आपका चलना- फिरना तो समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होता है ॥ ४ ॥ देवताओंके चरित्र भी कभी प्राणियोंके लिये दु:खके हेतु, तो कभी सुखके हेतु बन जाते हैं। परन्तु जो आप-जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष हैं—जिनका हृदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है—उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होती है ॥ ५ ॥ जो लोग देवताओंका जिस प्रकार भजन करते हैं, देवता भी परछार्ईंके समान ठीक उसी रीतिसे भजन करनेवालोंको फल देते हैं; क्योंकि देवता कर्मके मन्त्री हैं, अधीन हैं। परन्तु सत्पुरुष दीनवत्सल होते हैं अर्थात् जो सांसारिक सम्पत्ति एवं साधनसे भी हीन हैं, उन्हें अपनाते हैं ॥ ६ ॥ ब्रह्मन् ! (यद्यपि हम आपके शुभागमन और शुभ दर्शनसे ही कृतकृत्य हो गये हैं) तथापि आपसे उन धर्मोंके—साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्र कर रहे हैं, जिनको मनुष्य श्रद्धासे सुन भर ले तो इस सब ओरसे भयदायक संसारसे मुक्त हो जाय ॥ ७ ॥ पहले जन्ममें मैंने मुक्ति देनेवाले भगवान्‌की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिये नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधनाका उद्देश्य था कि वे मुझे पुत्ररूपमें प्राप्त हों। उस समय मैं भगवान्‌की लीलासे मुग्ध हो रहा था ॥ ८ ॥ सुव्रत ! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसारसे—जिसमें दु:ख भी सुखका विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं—अनायास ही पार हो जाऊँ ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! बुद्धिमान् वसुदेवजीने भगवान्‌के स्वरूप और गुण आदिके श्रवणके अभिप्रायसे ही यह प्रश्र किया था। देवर्षि नारद उनका प्रश्र सुनकर भगवान्‌के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणोंके स्मरणमें तन्मय हो गये और प्रेम एवं आनन्दमें भरकर वसुदेवजीसे बोले ॥ १० ॥

नारदजीने कहा—यदुवंशशिरोमणे ! तुम्हारा यह निश्चय बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि यह भागवत धर्मके सम्बन्धमें है, जो सारे विश्वको जीवन-दान देनेवाला है, पवित्र करनेवाला है ॥ ११ ॥ वसुदेवजी ! यह भागवतधर्म एक ऐसी वस्तु है, जिसे कानोंसे सुनने, वाणीसे उच्चारण करने, चित्तसे स्मरण करने, हृदयसे स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका अनुमोदन करनेसे ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है—चाहे वह भगवान्‌का एवं सारे संसारका द्रोही ही क्यों न हो ॥ १२ ॥ जिनके गुण, लीला और नाम आदिका श्रवण तथा कीर्तन पतितोंको भी पावन करनेवाला है, उन्हीं परम कल्याणस्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान्‌ नारायणका तुमने आज मुझे स्मरण कराया है ॥ १३ ॥ वसुदेवजी ! तुमने मुझसे जो प्रश्र किया है, इसके सम्बन्धमें संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है—ऋषभके पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेहका शुभ संवाद ॥ १४ ॥ तुम जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनुके एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रतके आग्रीध्र, आग्रीध्रके नाभि और नाभिके पुत्र हुए ऋषभ ॥ १५ ॥ शास्त्रोंने उन्हें भगवान्‌ वासुदेवका अंश कहा है। मोक्षधर्मका उपदेश करनेके लिये उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदोंके पारदर्शी विद्वान् थे ॥ १६ ॥ उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान्‌ नारायणके परम प्रेमी भक्त थे। उन्हींके नामसे यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था,‘भारतवर्ष’ कहलाया। यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है ॥ १७ ॥ राजर्षि भरतने सारी पृथ्वीका राज्य-भोग किया, परन्तु अन्तमें इसे छोडक़र वनमें चले गये। वहाँ उन्होंने तपस्याके द्वारा भगवान्‌ की उपासना की और तीन जन्मोंमें वे भगवान्‌को प्राप्त हुए ॥ १८ ॥ भगवान्‌ ऋषभदेवजीके शेष निन्यानबे पुत्रोंमें नौ पुत्र तो इस भारतवर्षके सब ओर स्थित नौ द्वीपोंके अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्डके रचयिता ब्राह्मण हो गये ॥ १९ ॥ शेष नौ संन्यासी हो गये। वे बड़े ही भाग्यवान् थे। उन्होंने आत्मविद्याके सम्पादनमें बड़ा परिश्रम किया था और वास्तवमें वे उसमें बड़े निपुण थे। वे प्राय: दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियोंको परमार्थ-वस्तुका उपदेश किया करते थे। उनके नाम थे—कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन ॥ २०-२१ ॥ वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवद्रूप जगत्को अपने आत्मासे अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण करते थे ॥ २२ ॥ उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य-गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागोंके लोकोंमें तथा मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओंके स्थानोंमें वे स्वछन्द विचरते थे। वसुदेवजी ! वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे ॥ २३ ॥

एक बारकी बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्षमें विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियोंके द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे। पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण करते हुए उनके यज्ञमें जा पहुँचे ॥ २४ ॥ वसुदेवजी ! वे योगीश्वर भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त और सूर्यके समान तेजस्वी थे। उन्हें देखकर राजा निमि, आहवनीय आदि मूर्तिमान् अग्रि और ऋत्विज् आदि ब्राह्मण सब-के-सब उनके स्वागतमें खड़े हो गये ॥ २५ ॥ विदेहराज निमिने उन्हें भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त जानकर यथायोग्य आसनोंपर बैठाया और प्रेम तथा आनन्दसे भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ २६ ॥ वे नवों योगीश्वर अपने अङ्गोंकी कान्तिसे इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हों। राजा निमि  ने विनयसे झुककर परम प्रेमके साथ उनसे प्रश्न किया ॥ २७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 9 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पहला अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

 

यदुवंश को ऋषियों का शाप

 

क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमारा यदुनन्दनाः ।

उपसङ्गृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत् ॥१३॥

ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम् ।

एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा ॥१४॥

प्रष्टुं विलज्जती साक्षात्प्रब्रूतामोघदर्शनाः ।

प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा किं स्वित्सञ्जनयिष्यति ॥१५॥

एवं प्रलब्धा मुनयस्तानूचुः कुपिता नृप ।

जनयिष्यति वो मन्दा मुसलं कुलनाशनम् ॥१६॥

तच्छ्रुत्वा तेऽतिसन्त्रस्ता विमुच्य सहसोदरम् ।

साम्बस्य ददृशुस्तस्मिन् मुसलं खल्वयस्मयम् ॥१७॥

किं कृतं मन्दभाग्यैर्नः किं वदिष्यन्ति नो जनाः ।

इति विह्वलिता गेहानादाय मुसलं ययुः ॥१८॥

तच्चोपनीय सदसि परिम्लानमुखश्रियः ।

राज्ञ आवेदयाञ्चक्रुः सर्वयादवसन्निधौ ॥१९॥

श्रुत्वामोघं विप्रशापं दृष्ट्वा च मुसलं नृप ।

विस्मिता भयसन्त्रस्ता बभूवुर्द्वारकौकसः ॥२०॥

तच्चूर्णयित्वा मुसलं यदुराजः स आहुकः ।

समुद्रसलिले प्रास्यल्लोहं चास्यावशेषितम् ॥२१॥

कश्चिन्मत्स्योऽग्रसील्लोहं चूर्णानि तरलैस्ततः ।

उह्यमानानि वेलायां लग्नान्यासन्किलैरकाः ॥२२॥

मत्स्यो गृहीतो मत्स्यघ्नैर्जालेनान्यैः सहार्णवे ।

तस्योदरगतं लोहं स शल्ये लुब्धकोऽकरोत् ॥२३॥

भगवान्ज्ञातसर्वार्थ ईश्वरोऽपि तदन्यथा ।

कर्तुं नैच्छद्विप्रशापं कालरूप्यन्वमोदत ॥२४॥

 

क दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणोंमें प्रणाम करके प्रश्र किया ॥ १३ ॥ वे जाम्बवतीनन्दन साम्ब को स्त्री के वेष में सजाकर ले गये और कहने लगे, ‘ब्राह्मणो ! यह कजरारी आँखों वाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आप से एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछने में सकुचाती है। आपलोगोंका ज्ञान अमोघ— अबाध है, आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्रकी बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आपलोग बताइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र ?’ ॥ १४-१५ ॥ परीक्षित्‌ ! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा—‘मूर्खो ! यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुलका नाश करनेवाला होगा ॥ १६ ॥ मुनियोंकी यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्बका पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहेका मूसल मिला ॥ १७ ॥ अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे—‘हम बड़े अभागे हैं। देखो, हमलोगोंने यह क्या अनर्थ कर डाला ? अब लोग हमें क्या कहेंगे ?’ इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थानमें गये ॥ १८ ॥ उस समय उनके चेहरे फीके पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी सभामें सब यादवोंके सामने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेनसे सारी घटना कह सुनायी ॥ १९ ॥ राजन् ! जब सब लोगोंने ब्राह्मणोंके शापकी बात सुनी और अपनी आँखोंसे उस मूसलको देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मणोंका शाप कभी झूठा नहीं होता ॥ २० ॥ यदुराज उग्रसेनने उस मूसलको चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहेके बचे हुए छोटे टुकड़ेको समुद्रमें फेंकवा दिया। (इसके सम्बन्धमें उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी) ॥ २१ ॥

परीक्षित्‌ ! उस लोहेके टुकड़ेको एक मछली निगल गयी और चूरा तरङ्गोंके साथ बहबहकर समुद्रके किनारे आ लगा। वह थोड़े दिनोंमें एरक (बिना गाँठकी एक घास) के रूपमें उग आया ॥ २२ ॥ मछली मारनेवाले मछुओंने समुद्रमें दूसरी मछलियोंके साथ उस मछलीको भी पकड़ लिया। उसके पेटमें जो लोहेका टुकड़ा था, उसको जरा नामक व्याधने अपने बाणके नोकमें लगा लिया ॥ २३ ॥ भगवान्‌ सब कुछ जानते थे। वे इस शापको उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा। कालरूपधारी प्रभुने ब्राह्मणोंके शापका अनुमोदन ही किया ॥ २४ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पहला अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

 

यदुवंश को ऋषियों का शाप

 

श्रीशुक उवाच

कृत्वा दैत्यवधं कृष्णः सरामो यदुभिर्वृतः ।

भुवोऽवतारयद्भारं जविष्ठं जनयन्कलिम् ॥१॥

ये कोपिताः सुबहु पाण्डुसुताः सपत्नैः

दुर्द्यूतहेलनकचग्रहणादिभिस्तान् ।

कृत्वा निमित्तमितरेतरतः समेतान्

हत्वा नृपान्निरहरत्क्षितिभारमीशः॥२॥

भूभारराजपृतना यदुभिर्निरस्य

गुप्तैः स्वबाहुभिरचिन्तयदप्रमेयः ।

मन्येऽवनेर्ननु गतोऽप्यगतं हि भारं

यद्यादवं कुलमहो अविषह्यमास्ते ॥३॥

नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत्कथञ्चिन्

मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम् ।

अन्तः कलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु

स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम ॥४॥

एवं व्यवसितो राजन्सत्यसङ्कल्प ईश्वरः ।

शापव्याजेन विप्राणां सञ्जह्रे स्वकुलं विभुः ॥५॥

स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम् ।

गीर्भिस्ताः स्मरतां चित्तं पदैस्तानीक्षतां क्रियाः ॥६॥

आच्छिद्य कीर्तिं सुश्लोकां वितत्य ह्यञ्जसा नु कौ ।

तमोऽनया तरिष्यन्तीत्यगात्स्वं पदमीश्वरः ॥७॥

 

श्रीराजोवाच

ब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धोपसेविनाम् ।

विप्रशापः कथमभूद्वृष्णीनां कृष्णचेतसाम् ॥८॥

यन्निमित्तः स वै शापो यादृशो द्विजसत्तम ।

कथमेकात्मनां भेद एतत्सर्वं वदस्व मे ॥९॥

 

श्रीबादरायणिरुवाच

बिभ्रद्वपुः सकलसुन्दरसन्निवेशं

कर्माचरन्भुवि सुमङ्गलमाप्तकामः ।

आस्थाय धाम रममाण उदारकीर्तिः

संहर्तुमैच्छत कुलं स्थितकृत्यशेषः ॥१०॥

कर्माणि पुण्यनिवहानि सुमङ्गलानि

गायज्जगत्कलिमलापहराणि कृत्वा ।

कालात्मना निवसता यदुदेवगेहे

पिण्डारकं समगमन्मुनयो निसृष्टाः॥११॥

विश्वामित्रोऽसितः कण्वो दुर्वासा भृगुरङ्गिराः ।

कश्यपो वामदेवोऽत्रिःवसिष्ठो नारदादयः ॥१२॥

 

व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने बलरामजी तथा अन्य यदुवंशियों के साथ मिलकर बहुत-से दैत्योंका संहार किया तथा कौरव और पाण्डवोंमें भी शीघ्र मार-काट मचानेवाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ १ ॥ कौरवों ने कपटपूर्ण जूए से, तरह-तरह के अपमानों से तथा द्रौपदी के केश खींचने आदि अत्याचारोंसे पाण्डवोंको अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवोंको निमित्त बनाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने दोनों पक्षोंमें एकत्र हुए राजाओंको मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वीका भार हलका कर दिया ॥ २ ॥ अपने बाहुबलसे सुरक्षित यदुवंशियोंके द्वारा पृथ्वीके भार—राजा और उनकी सेनाका विनाश करके, प्रमाणोंके द्वारा ज्ञानके विषय न होनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने विचार किया कि लोकदृष्टिसे पृथ्वीका भार दूर हो जानेपर भी वस्तुत: मेरी दृष्टिसे अभीतक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिसपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वीपर विद्यमान है ॥ ३ ॥ यह यदुवंश मेरे आश्रित है और हाथी, घोड़े, जनबल, धनबल आदि विशाल वैभवके कारण उच्छृङ्खल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदिसे भी इसकी किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बाँसके वनमें परस्पर संघर्षसे उत्पन्न अग्रिके समान इस यदुवंशमें भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धाममें जाऊँगा ॥ ४ ॥ राजन् ! भगवान्‌ सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं। उन्होंने इस प्रकार अपने मनमें निश्चय करके ब्राह्मणोंके शापके बहाने अपने ही वंशका संहार कर डाला, सबको समेटकर अपने धाममें ले गये ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌की वह मूर्ति त्रिलोकीके सौन्दर्यका तिरस्कार करनेवाली थी। उन्होंने अपनी सौन्दर्य-माधुरीसे सबके नेत्र अपनी ओर आकर्षित कर लिये थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश परम मधुर, दिव्यातिदिव्य थे। उनके द्वारा उन्हें स्मरण करनेवालोंके चित्त उन्होंने छीन लिये थे। उनके चरणकमल त्रिलोकसुन्दर थे। जिसने उनके एक चरणचिह्नका भी दर्शन कर लिया, उसकी बहिर्मुखता दूर भाग गयी, वह कर्मप्रपञ्च से ऊपर उठकर उन्हींकी सेवामें लग गया। उन्होंने अनायास ही पृथ्वीमें अपनी कीर्तिका विस्तार कर दिया, जिसका बड़े-बड़े सुकवियोंने बड़ी ही सुन्दर भाषामें वर्णन किया है। वह इसलिये कि मेरे चले जानेके बाद लोग मेरी इस कीर्तिका गान, श्रवण और स्मरण करके इस अज्ञानरूप अन्धकारसे सुगमतया पार हो जायँगे। इसके बाद परमैश्वर्यशाली भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने धामको प्रयाण किया ॥ ६-७ ॥

राजा परीक्षित्‌ने पूछा—भगवन् ! यदुवंशी बड़े ब्राह्मणभक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी और वे अपने कुलवृद्धोंकी नित्य-निरन्तर सेवा करनेवाले थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उनका चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णमें लगा रहता था; फिर उनसे ब्राह्मणोंका अपराध कैसे बन गया ? और क्यों ब्राह्मणोंने उन्हें शाप दिया ? ॥ ८ ॥ भगवान्‌के परम प्रेमी विप्रवर ! उस शापका कारण क्या था तथा क्या स्वरूप था ? समस्त यदुवंशियोंके आत्मा, स्वामी और प्रियतम एकमात्र भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही थे; फिर उनमें फूट कैसे हुई ? दूसरी दृष्टिसे देखें तो वे सब ऋषि अद्वैतदर्शी थे, फिर उनको ऐसी भेददृष्टि कैसे हुई ? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—भगवान्‌ श्रीकृष्णने वह शरीर धारण करके जिसमें सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थोंका सन्निवेश था (नेत्रोंमें मृगनयन, कन्धोंमें सिंहस्कन्ध, करोंमें करि-कर, चरणोंमें कमल आदिका विन्यास था। ) पृथ्वीमें मङ्गलमय कल्याणकारी कर्मोंका आचरण किया। वे पूर्णकाम प्रभु द्वारकाधाममें रहकर क्रीडा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्तिकी स्थापना की। (जो कीर्ति स्वयं अपने आश्रयतकका दान कर सके वह उदार है।) अन्तमें श्रीहरिने अपने कुलके संहार—उपसंहारकी इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वीका भार उतरनेमें इतना ही कार्य शेष रह गया था ॥ १० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने ऐसे परम मङ्गलमय और पुण्य-प्रापक कर्म किये, जिनका गान करनेवाले लोगोंके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेन की राजधानी द्वारकापुरी में वसुदेवजी के घर यादवों का संहार करने के लिये कालरूप से ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर देने पर—विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अङ्गिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे थे  ॥११-१२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...