॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)
वसुदेवजीके पास श्रीनारदजीका आना और
उन्हें
राजा जनक तथा नौ योगीश्वरोंका संवाद
सुनाना
श्रीशुक
उवाच -
गोविन्दभुजगुप्तायां
द्वारवत्यां कुरूद्वह ।
अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः ॥ १ ॥
को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकन्दचरणम्बुजम् ।
न भजेत् सर्वतोमृत्युः उपास्यममरोत्तमैः ॥ २ ॥
तमेकदा तु देवर्षिं वसुदेवो गृहागतम् ।
अर्चितं सुखमासीनमभिवाद्येदमब्रवीत् ॥ ३ ॥
श्रीवसुदेव उवाच
भगवन् भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम् ।
कृपणानां यथा पित्रोः उत्तमश्लोकवर्त्मनाम् ॥ ४
॥
भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च ।
सुखायैव हि साधूनां त्वादृशामच्युतात्मनाम् ॥ ५
॥
भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान् ।
छायेव कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः ॥ ६ ॥
ब्रह्मन् तथापि पृच्छामो धर्मान् भागवतांस्तव ।
यान् श्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यो मुच्यते सर्वतो
भयात् ॥ ७ ॥
अहं किल पुरानन्तं प्रजार्थो भुवि मुक्तिदम् ।
अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया ॥ ८ ॥
यथा विचित्रव्यसनाद् भवद्भिः विश्वतोभयात् ।
मुच्येम ह्यञ्जसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत ॥ ९
॥
श्रीशुक उवाच -
राजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता ।
प्रीतस्तमाह देवर्षिः हरेः संस्मारितो गुणैः ॥
१० ॥
श्रीनारद उवाच -
सम्यगेतद्व्यवसितं भवता सात्वतर्षभ ।
यत् पृच्छसे भागवतान् धर्मान् त्वं विश्वभावनान्
॥ ११ ॥
श्रुतोऽनुपठितो ध्यात आदृतो वानुमोदितः ।
सद्यः पुनाति सद्धर्मो देव विश्वद्रुहोऽपि हि ॥
१२ ॥
त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम ॥ १३ ॥
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम् ।
आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मनः ॥ १४ ॥
प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः ।
तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिः ऋषभस्तत्सुतस्स्मृतः ॥
१५ ॥
तमाहुः वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।
अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् ॥ १६ ॥
तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः ।
विख्यातं वर्षमेतद्यत् नाम्ना भारतमद्भुतम् ॥
१७ ॥
स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम् ।
उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः ॥ १८
॥
तेषां नव नवद्वीप-पतयोऽस्य समन्ततः ।
कर्मतन्त्रप्रणेतार एकाशीतिर्द्विजातयः ॥ १९ ॥
नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः ।
श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदाः ॥ २० ॥
कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः ।
आविहोत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः ॥ २१ ॥
त एते भगवद्रूपं विश्वं सदसदात्मकम् ।
आत्मनोऽव्यतिरेकेण पश्यन्तो व्यचरन् महीम् ॥ २२
॥
अव्याहतेष्टगतयः
सुरसिद्धसाध्य-
गन्धर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान् ।
मुक्ताश्चरन्ति मुनि-चारण-भूतनाथ-
विद्याधर-द्विज-गवां भुवनानि कामम् ॥ २३ ॥
त एकदा निमेः
सत्रं उपजग्मुः यदृच्छया ।
वितायमानं ऋषिभिः अजनाभेर्महात्मनः ॥ २४ ॥
तान् दृष्ट्वा सूर्यसङ्काशान् महाभागवतान् नृप ।
यजमानोऽग्नयो विप्राः सर्व एवोपतस्थिरे ॥ २५ ॥
विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरायणान् ।
प्रीतः संपूजयाञ्चक्रे आसनस्थान् यथार्हतः ॥ २६
॥
तान् रोचमानान् स्वरुचा ब्रह्मपुत्रोपमान् नव ।
पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृपः ॥ २७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुरुनन्दन !
देवर्षि नारदके मनमें भगवान् श्रीकृष्णकी सन्निधिमें रहनेकी बड़ी लालसा थी।
इसलिये वे श्रीकृष्णके निज बाहुओंसे सुरक्षित द्वारकामें—जहाँ दक्ष आदिके शापका
कोई भय नहीं था, विदा कर देनेपर भी पुन:-पुन: आकर प्राय: रहा ही करते थे ॥ १ ॥
राजन् ! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हों और वह भगवान्के ब्रह्मा आदि
बड़े-बड़े देवताओंके भी उपास्य चरणकमलोंकी दिव्य गन्ध,
मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मङ्गलमय ध्वनिका सेवन करना न चाहे ? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओरसे मृत्युसे ही घिरा हुआ है ॥ २ ॥
एक दिनकी बात है, देवर्षि
नारद वसुदेवजीके यहाँ पधारे। वसुदेवजीने उनका अभिवादन किया तथा आरामसे बैठ जानेपर
विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुन: प्रणाम करके उनसे यह बात कही ॥ ३ ॥
वसुदेवजीने कहा—संसारमें
माता-पिताका आगमन पुत्रोंके लिये और भगवान्की ओर अग्रसर होनेवाले साधु-संतोंका
पदार्पण प्रपञ्चमें उलझे हुए दीन-दुखियोंके लिये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मङ्गलमय
होता है। परन्तु भगवन् ! आप तो स्वयं भगवन्मय,
भगवत्स्वरूप हैं। आपका चलना- फिरना तो समस्त प्राणियोंके कल्याणके
लिये ही होता है ॥ ४ ॥ देवताओंके चरित्र भी कभी प्राणियोंके लिये दु:खके हेतु, तो कभी सुखके हेतु बन जाते हैं। परन्तु जो आप-जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष
हैं—जिनका हृदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है—उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त
प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होती है ॥ ५ ॥ जो लोग देवताओंका जिस प्रकार भजन करते
हैं, देवता भी परछार्ईंके समान ठीक उसी रीतिसे भजन करनेवालोंको फल देते
हैं; क्योंकि देवता कर्मके मन्त्री हैं,
अधीन हैं। परन्तु सत्पुरुष दीनवत्सल होते हैं अर्थात् जो सांसारिक
सम्पत्ति एवं साधनसे भी हीन हैं, उन्हें अपनाते हैं ॥ ६ ॥ ब्रह्मन् ! (यद्यपि हम आपके शुभागमन और
शुभ दर्शनसे ही कृतकृत्य हो गये हैं) तथापि आपसे उन धर्मोंके—साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्र
कर रहे हैं, जिनको मनुष्य श्रद्धासे सुन भर ले तो इस सब ओरसे भयदायक संसारसे
मुक्त हो जाय ॥ ७ ॥ पहले जन्ममें मैंने मुक्ति देनेवाले भगवान्की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिये नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधनाका उद्देश्य
था कि वे मुझे पुत्ररूपमें प्राप्त हों। उस समय मैं भगवान्की लीलासे मुग्ध हो रहा
था ॥ ८ ॥ सुव्रत ! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह
संसारसे—जिसमें दु:ख भी सुखका विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं—अनायास
ही पार हो जाऊँ ॥ ९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् !
बुद्धिमान् वसुदेवजीने भगवान्के स्वरूप और गुण आदिके श्रवणके अभिप्रायसे ही यह
प्रश्र किया था। देवर्षि नारद उनका प्रश्र सुनकर भगवान्के अचिन्त्य अनन्त
कल्याणमय गुणोंके स्मरणमें तन्मय हो गये और प्रेम एवं आनन्दमें भरकर वसुदेवजीसे
बोले ॥ १० ॥
नारदजीने कहा—यदुवंशशिरोमणे !
तुम्हारा यह निश्चय बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि यह भागवत धर्मके सम्बन्धमें है,
जो सारे विश्वको जीवन-दान देनेवाला है,
पवित्र करनेवाला है ॥ ११ ॥ वसुदेवजी ! यह भागवतधर्म एक ऐसी वस्तु
है, जिसे कानोंसे सुनने, वाणीसे उच्चारण करने, चित्तसे स्मरण करने, हृदयसे स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका
अनुमोदन करनेसे ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है—चाहे वह भगवान्का एवं सारे
संसारका द्रोही ही क्यों न हो ॥ १२ ॥ जिनके गुण,
लीला और नाम आदिका श्रवण तथा कीर्तन पतितोंको भी पावन करनेवाला है, उन्हीं परम कल्याणस्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान् नारायणका तुमने आज
मुझे स्मरण कराया है ॥ १३ ॥ वसुदेवजी ! तुमने मुझसे जो प्रश्र किया है, इसके सम्बन्धमें संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह
इतिहास है—ऋषभके पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेहका शुभ संवाद ॥ १४ ॥ तुम
जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनुके एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रतके
आग्रीध्र, आग्रीध्रके नाभि और नाभिके पुत्र हुए ऋषभ ॥ १५ ॥ शास्त्रोंने
उन्हें भगवान् वासुदेवका अंश कहा है। मोक्षधर्मका उपदेश करनेके लिये उन्होंने
अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदोंके पारदर्शी विद्वान् थे
॥ १६ ॥ उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान् नारायणके परम प्रेमी भक्त थे।
उन्हींके नामसे यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था,‘भारतवर्ष’ कहलाया। यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है ॥ १७ ॥ राजर्षि
भरतने सारी पृथ्वीका राज्य-भोग किया, परन्तु अन्तमें इसे छोडक़र वनमें चले गये। वहाँ उन्होंने तपस्याके
द्वारा भगवान् की उपासना की और तीन जन्मोंमें वे भगवान्को प्राप्त हुए ॥ १८ ॥
भगवान् ऋषभदेवजीके शेष निन्यानबे पुत्रोंमें नौ पुत्र तो इस भारतवर्षके सब ओर
स्थित नौ द्वीपोंके अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्डके रचयिता ब्राह्मण हो
गये ॥ १९ ॥ शेष नौ संन्यासी हो गये। वे बड़े ही भाग्यवान् थे। उन्होंने
आत्मविद्याके सम्पादनमें बड़ा परिश्रम किया था और वास्तवमें वे उसमें बड़े निपुण
थे। वे प्राय: दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियोंको परमार्थ-वस्तुका उपदेश किया
करते थे। उनके नाम थे—कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन ॥ २०-२१ ॥ वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त
भगवद्रूप जगत्को अपने आत्मासे अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण
करते थे ॥ २२ ॥ उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य-गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागोंके लोकोंमें तथा मुनि,
चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओंके स्थानोंमें वे स्वछन्द विचरते थे। वसुदेवजी !
वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे ॥ २३ ॥
एक बारकी बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्षमें विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियोंके
द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे। पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण करते हुए
उनके यज्ञमें जा पहुँचे ॥ २४ ॥ वसुदेवजी ! वे योगीश्वर भगवान्के परम प्रेमी भक्त
और सूर्यके समान तेजस्वी थे। उन्हें देखकर राजा निमि,
आहवनीय आदि मूर्तिमान् अग्रि और ऋत्विज् आदि ब्राह्मण सब-के-सब
उनके स्वागतमें खड़े हो गये ॥ २५ ॥ विदेहराज निमिने उन्हें भगवान्के परम प्रेमी
भक्त जानकर यथायोग्य आसनोंपर बैठाया और प्रेम तथा आनन्दसे भरकर विधिपूर्वक उनकी
पूजा की ॥ २६ ॥ वे नवों योगीश्वर अपने अङ्गोंकी कान्तिसे इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हों। राजा
निमि ने विनयसे झुककर परम प्रेमके साथ
उनसे प्रश्न किया ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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