गुरुवार, 11 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

 

माया, माया से पार होने के उपाय

तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

 

 

श्रीराजोवाच -

परस्य विष्णोरीशस्य मायिनां अपि मोहिनीम् ।

 मायां वेदितुमिच्छामो भगवन्तो ब्रुवन्तु नः ॥ १ ॥

 नानुतृप्ये जुषन् युष्मद्वचो हरिकथामृतम् ।

 संसारतापनिस्तप्तो मर्त्यः तत्तापभेषजम् ॥ २ ॥

 

 श्री अन्तरिक्ष उवाच -

एभिर्भूतानि भूतात्मा महाभूतैर्महाभुज ।

 ससर्जोच्चावचान्याद्यः स्वमात्रात्मप्रसिद्धये ॥ ३ ॥

 एवं सृष्टानि भूतानि प्रविष्टः पञ्चधातुभिः ।

 एकधा दशधाऽऽत्मानं विभजन् जुषते गुणान् ॥ ४ ॥

 गुणैर्गुणान् स भुञ्जान आत्मप्रद्योतितैः प्रभुः ।

 मन्यमान इदं सृष्टं आत्मानमिह सज्जते ॥ ५ ॥

 कर्माणि कर्मभिः कुर्वन् सनिमित्तानि देहभृत् ।

 तत्तत् कर्मफलं गृह्णन् भ्रमतीह सुखेतरम् ॥ ६ ॥

 इत्थं कर्मगतीर्गच्छन् बह्वभद्रवहाः पुमान् ।

 आभूतसंप्लवात्सर्गप्रलयावश्नुतेऽवशः ॥ ७ ॥

 धातूपप्लव आसन्ने व्यक्तं द्रव्यगुणात्मकम् ।

 अनादिनिधनः कालो ह्यव्यक्तायापकर्षति ॥ ८ ॥

 शतवर्षा ह्यनावृष्टिः भविष्यत्युल्बणा भुवि ।

 तत्कालोपचितोष्णार्को लोकान् त्रीन् प्रतपिष्यति ॥ ९ ॥

 पातालतलमारभ्य सङ्‌कर्षणमुखानलः ।

 दहन् ऊर्ध्वशिखो विष्वग् वर्धते वायुनेरितः ॥ १० ॥

 सांवर्तको मेघगणो वर्षति स्म शतं समाः ।

 धाराभिर्हस्तिहस्ताभिः लीयते सलिले विराट् ॥ ११ ॥

 ततो विराजमुत्सृज्य वैराजः पुरुषो नृप ।

 अव्यक्तं विशते सूक्ष्मं निरिन्धन इवानलः ॥ १२ ॥

 वायुना हृतगन्धा भूः सलिलत्वाय कल्पते ।

 सलिलं तद्‌धृतरसं ज्योतिष्ट्वायोपकल्पते ॥ १३ ॥

 हृतरूपं तु तमसा वायौ ज्योतिः प्रलीयते ।

 हृतस्पर्शोऽवकाशेन वायुर्नभसि लीयते ॥ १४ ॥

 कालात्मना हृतगुणं नभ आत्मनि लीयते ।

 इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सह वैकारिकैर्नृप ।

 प्रविशन्ति ह्यहङ्‌कारं स्वगुणैः अहमात्मनि ॥ १५ ॥

 एषा माया भगवतः सर्गस्थित्यन्तकारिणी ।

 त्रिवर्णा वर्णितास्माभिः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १६ ॥

 

राजा निमिने पूछा—भगवन् ! सर्वशक्तिमान् परमकारण विष्णुभगवान्‌ की माया बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित कर देती है, उसे कोई पहचान नहीं पाता; (और आप कहते हैं कि भक्त उसे देखा करता है।) अत: अब मैं उस मायाका स्वरूप जानना चाहता हूँ, आपलोग कृपा करके बतलाइये ॥ १ ॥ योगीश्वरो ! मैं एक मृत्युका शिकार मनुष्य हूँ। संसारके तरह-तरहके तापोंने मुझे बहुत दिनोंसे तपा रखा है। आपलोग जो भगवत्कथारूप अमृतका पान करा रहे हैं, वह उन तापोंको मिटानेकी एकमात्र ओषधि है; इसलिये मैं आपलोगोंकी इस वाणीका सेवन करते-करते तृप्त नहीं होता। आप कृपया और कहिये ॥ २ ॥

अब तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्ष जी ने कहा—राजन् ! (भगवान्‌ की माया स्वरूपत: अनिर्वचनीय है, इसलिये उसके कार्यों के द्वारा ही उसका निरूपण होता है।) आदि-पुरुष परमात्मा जिस शक्तिसे सम्पूर्ण भूतोंके कारण बनते हैं और उनके विषय-भोग तथा मोक्षकी सिद्धिके लिये अथवा अपने उपासकोंकी उत्कृष्ट सिद्धिके लिये स्वनिर्मित पञ्चभूतोंके द्वारा नाना प्रकारके देव, मनुष्य आदि शरीरोंकी सृष्टि करते हैं, उसीको माया कहते हैं ॥ ३ ॥ इस प्रकार पञ्चमहाभूतोंके द्वारा बने हुए प्राणिशरीरों में उन्होंने अन्तर्यामीरूपसे प्रवेश किया और अपनेको ही पहले एक मनके रूपमें और इसके बाद पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय—इन दस रूपोंमें विभक्त कर दिया तथा उन्हींके द्वारा विषयोंका भोग कराने लगे ॥ ४ ॥ वह देहाभिमानी जीव अन्तर्यामीके द्वारा प्रकाशित इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका भोग करता है और इस पञ्चभूतोंके द्वारा निर्मित शरीरको आत्मा—अपना स्वरूप मानकर उसीमें आसक्त हो जाता है। (यह भगवान्‌की माया है) ॥ ५ ॥ अब वह कर्मेन्द्रियोंसे सकाम कर्म करता है और उनके अनुसार शुभ कर्मका फल सुख और अशुभ कर्मका फल दु:ख भोग करने लगता है और शरीरधारी होकर इस संसारमें भटकने लगता है। यह भगवान्‌की माया है ॥ ६ ॥ इस प्रकार यह जीव ऐसी अनेक अमङ्गलमय कर्मगतियोंको, उनके फलोंको प्राप्त होता है और महाभूतोंके प्रलयपर्यन्त विवश होकर जन्मके बाद मृत्यु और मृत्युके बाद जन्मको प्राप्त होता रहता है—यह भगवान्‌की माया है ॥ ७ ॥ जब पञ्चभूतोंके प्रलयका समय आता है, तब अनादि और अनन्त काल स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य एवं गुणरूप इस समस्त व्यक्त सृष्टिको अव्यक्तकी ओर, उसके मूल कारणकी ओर खींचता है—यह भगवान्‌की माया है ॥ ८ ॥ उस समय पृथ्वीपर लगातार सौ वर्षतक भयङ्कर सूखा पड़ता है, वर्षा बिलकुल नहीं होती; प्रलयकालकी शक्तिसे सूर्यकी उष्णता और भी बढ़ जाती है तथा वे तीनों लोकोंको तपाने लगते हैं—यह भगवान्‌ की माया है ॥ ९ ॥ उस समय शेषनाग—सङ्कर्षणके मुँहसे आगकी प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायुकी प्रेरणासे वे लपटें पाताललोकसे जलाना आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं— यह भगवान्‌की माया है ॥ १० ॥ इसके बाद प्रलयकालीन सांवर्तक मेघगण हाथीकी सूँडके समान मोटी-मोटी धाराओंसे सौ वर्षतक बरसता रहता है। उससे यह विराट् ब्रह्माण्ड जलमें डूब जाता है—यह भगवान्‌की माया है ॥ ११ ॥ राजन् ! उस समय जैसे बिना र्ईंधनके आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट् पुरुष ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड-शरीरको छोडक़र सूक्ष्मस्वरूप अव्यक्तमें लीन हो जाते हैं—यह भगवान्‌की माया है ॥ १२ ॥ वायु पृथ्वीकी गन्ध खींच लेती है, जिससे वह जलके रूपमें हो जाती है और जब वही वायु जलके रसको खींच लेती है, तब वह जल अपना कारण अग्रि बन जाता है— यह भगवान्‌की माया है ॥ १३ ॥ जब अन्धकार अग्रिका रूप छीन लेता है, तब वह अग्रि वायुमें लीन हो जाती है और जब अवकाशरूप आकाश वायुकी स्पर्श-शक्ति छीन लेता है, तब वह आकाशमें लीन हो जाता है—यह भगवान्‌की माया है ॥ १४ ॥ राजन् ! तदनन्तर कालरूप ईश्वर आकाशके शब्द गुणको हरण कर लेता है जिससे वह तामस अहङ्कार  में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहङ्कार में लीन होती हैं। मन सात्त्विक अहङ्कारसे उत्पन्न देवताओंके साथ सात्त्विक अहङ्कार में प्रवेश कर जाता है तथा अपने तीन प्रकारके कार्योंके साथ अहङ्कार महत्त्वमें लीन हो जाता है। महत्तत्त्व प्रकृतिमें और प्रकृति ब्रह्ममें लीन होती है। फिर इसीके उलटे क्रमसे सृष्टि होती है। यह भगवान्‌की माया है ॥ १५ ॥ यह सृष्टि, स्थिति और संहार करनेवाली त्रिगुणमयी माया है। इसका हमने आपसे वर्णन किया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 10 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वसुदेवजीके पास श्रीनारदजीका आना और उन्हें

राजा जनक तथा नौ योगीश्वरोंका संवाद सुनाना

 

 श्रीविदेह उवाच -

 मन्ये भगवतः साक्षात् पार्षदान् वो मधुद्विषः ।

 विष्णोर्भूतानि लोकानां पावनाय चरन्ति हि ॥ २८ ॥

 दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्‌गुरः ।

 तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठ-प्रियदर्शनम् ॥ २९ ॥

 अत आत्यन्तिकं क्षेमं पृच्छामो भवतोऽनघाः ।

 संसारेऽस्मिन् क्षणार्धोऽपि सत्सङ्गः शेवधिर्नृणाम् ॥ ३० ॥

 धर्मान् भागवतान् ब्रूत यदि नः श्रुतये क्षमम् ।

 यैः प्रसन्नः प्रपन्नाय, दास्यत्यात्मानमप्यजः ॥ ३१ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

 एवं ते निमिना पृष्टा वसुदेव महत्तमाः ।

 प्रतिपूज्याब्रुवन् प्रीत्या ससदस्यर्त्विजं नृपम् ॥ ३२ ॥

 

 श्रीकविरुवाच -

 मन्येऽकुतश्चिद्भयमच्युतस्य

     पादाम्बुजोपासनमत्र नित्यम् ।

 उद्विग्नबुद्धेः असदात्मभावात्

     विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः ॥ ३३ ॥

 ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।

 अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥ ३४ ॥

 यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित् ।

 धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥ ३५ ॥

 कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा

     बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात् ।

 करोति यद् यत् सकलं परस्मै

     नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥ ३६ ॥

 भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्

     ईशात् अपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः ।

 तन्माययातो बुध आभजेत्तं

     भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा ॥ ३७ ॥

 अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयोः

     ध्यातुर्धिया स्वप्नमनोरथौ यथा ।

 तत्कर्मसङ्कल्पविकल्पकं मनो

     बुधो निरुंध्याद् अभयं ततः स्यात् ॥ ३८ ॥

 श्रृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणेः

     जन्मानि कर्माणि च यानि लोके ।

 गीतानि नामानि तदर्थकानि

     गायन् विलज्जो विचरेदसङ्गः ॥ ३९ ॥

 एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या

     जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः ।

 हसत्यथो रोदिति रौति गाय-

     त्युन्मादवत् नृत्यति लोकबाह्यः ॥ ४० ॥

 खं वायुमग्निं सलिलं महीं च

     ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।

 सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं

     यत्किं च भूतं प्रणमेदनन्यः ॥ ४१ ॥

 भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिः

     अन्यत्र चैष त्रिक एककालः ।

 प्रपद्यमानस्य यथाश्नतस्स्युः

     तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥ ४२ ॥

 इति अच्युताङ्‌घ्रिं भजतोऽनुवृत्त्या

     भक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रबोधः ।

 भवन्ति वै भागवतस्य राजन्

     ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात् ॥ ४३ ॥

 

 श्रीराजोवाच -

 अथ भागवतं ब्रूत यद्धर्मो यादृशो नृणाम् ।

 यथाचरति यद्‍ ब्रूते यैर्लिङ्गैः भगवत्‌प्रियः ॥ ४४ ॥

 

 श्रीहरिरुवाच -

 सर्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः ।

 भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ।। ४५ ॥

 ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।

 प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥ ४६ ॥

 अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।

 न तद्‍भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ ४७ ॥

 गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति ।

 विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः ॥ ४८ ॥

 देहेन्द्रिप्राणमनोधियां यो

     जन्माप्ययक्षुद्भयतर्षकृच्छ्रैः ।

 संसारधर्मैरविमुह्यमानः

     स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः ॥ ४९ ॥

न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि संभवः ।

 वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः ॥ ५० ॥

 न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रमजातिभिः ।

 सज्जतेऽस्मिन्नहं भावो देहे वै स हरेः प्रियः ॥ ५१ ॥

 न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।

 सर्वभूतसमश्शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥ ५२ ॥

त्रिभुवन-विभवहेतवेऽप्यकुण्ठ-

     स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात् ।

 न चलति भगवत्पादारविन्दात् ।

     लव निमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः ॥ ५३ ॥

 भगवत उरुविक्रमाङ्‌घ्रिशाखा-

     नखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे ।

 हृदि कथमुपसीदतां पुनः स

     प्रभवति चन्द्र इवोदितेऽर्कतापः ॥ ५४ ॥

 विसृजति हृदयं न यस्य साक्षाद्

     हरिः अवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः ।

 प्रणयरशनया घृताङ्‌घ्रिपद्मः

     स भवति भागवतप्रधान उक्तः ॥ ५५ ॥

 

विदेहराज निमि ने कहा—भगवन् ! मैं ऐसा समझता हूँ कि आपलोग मधुसूदन भगवान्‌ के पार्षद ही हैं, क्योंकि भगवान्‌ के पार्षद संसारी प्राणियों को पवित्र करनेके लिये विचरण किया करते हैं ॥ २८ ॥ जीवोंके लिये मनुष्य-शरीरका प्राप्त होना दुर्लभ है। यदि यह प्राप्त भी हो जाता है तो प्रतिक्षण मृत्युका भय सिरपर सवार रहता है, क्योंकि यह क्षणभङ्गुर है। इसलिये अनिश्चित मनुष्य- जीवनमें भगवान्‌के प्यारे और उनको प्यार करनेवाले भक्तजनोंका, संतोंका दर्शन तो और भी दुर्लभ है ॥ २९ ॥ इसलिये त्रिलोकपावन महात्माओ ! हम आपलोगोंसे यह प्रश्न करते हैं कि परम कल्याणका स्वरूप क्या है ? और उसका साधन क्या है ? इस संसारमें आधे क्षणका सत्सङ्ग भी मनुष्योंके लिये परम निधि है ॥ ३० ॥ योगीश्वरो ! यदि हम सुनने के अधिकारी हों तो आप कृपा करके भागवत-धर्मोंका उपदेश कीजिये; क्योंकि उनसे जन्मादि विकार से रहित, एकरस भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और उन धर्मों का पालन करने वाले शरणागत भक्तों को अपने-आप तक का दान कर डालते हैं ॥ ३१ ॥

देवर्षि नारदजीने कहा—वसुदेवजी ! जब राजा निमिने उन भगवत्प्रेमी संतोंसे यह प्रश्र किया, तब उन लोगोंने बड़े प्रेमसे उनका और उनके प्रश्रका सम्मान किया और सदस्य तथा ऋत्विजोंके साथ बैठे हुए राजा निमिसे बोले ॥ ३२ ॥

पहले उन नौ योगीश्वरोंमेंसे कविजीने कहा—राजन् ! भक्तजनोंके हृदयसे कभी दूर न होनेवाले अच्युत भगवान्‌ के चरणोंकी नित्य निरन्तर उपासना ही इस संसारमें परम कल्याण—आत्यन्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। देह, गेह आदि तुच्छ एवं असत् पदार्थोंमें अहंता एवं ममता हो जानेके कारण जिन लोगोंकी चित्तवृत्ति उद्विग्र हो रही है, उनका भय भी इस उपासनाका अनुष्ठान करनेपर पूर्णतया निवृत्त हो जाता है ॥ ३३ ॥ भगवान्‌ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषोंको भी सुगमतासे साक्षात् अपनी प्राप्तिके लिये जो उपाय स्वयं श्रीमुखसे बतलाये हैं, उन्हें ही ‘भागवत धर्म’ समझो ॥ ३४ ॥ राजन् ! इन भागवतधर्मोंका अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नों से पीडि़त नहीं होता और नेत्र बंद करके दौडऩेपर भी अर्थात् विधि-विधानमें त्रुटि हो जानेपर भी न तो मार्गसे स्खलित ही होता है और न तो पतित—फलसे वञ्चित ही होता है ॥ ३५ ॥ (भागवतधर्मका पालन करनेवालेके लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकारका कर्म ही करे।) वह शरीरसे, वाणीसे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुद्धिसे, अहङ्कारसे, अनेक जन्मों अथवा एक जन्मकी आदतोंसे स्वभाववश जो-जो करे, वह सब परमपुरुष भगवान्‌ नारायणके लिये ही है—इस भावसे उन्हें समर्पण कर दे। (यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवतधर्म है) ॥ ३६ ॥ ईश्वरसे विमुख पुरुषको उनकी मायासे अपने स्वरूपकी विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृतिसे ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ,’ इस प्रकारका भ्रम—विपर्यय हो जाता है। इस देह आदि अन्य वस्तुमें अभिनिवेश, तन्मयता होनेके कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेकों भय होते हैं। इसलिये अपने गुरुको ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्तिके द्वारा उस ईश्वरका भजन करना चाहिये ॥ ३७ ॥ राजन् ! सच पूछो तो भगवान्‌के अतिरिक्त, आत्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। परन्तु न होनेपर भी इसकी प्रतीति इसका चिन्तन करनेवालेको उसके चिन्तनके कारण, उधर मन लगनेके कारण ही होती है—जैसे स्वप्नके समय स्वप्नद्रष्टाकी कल्पनासे अथवा जाग्रत् अवस्थामें नाना प्रकारके मनोरथोंसे एक विलक्षण ही सृष्टि दीखने लगती है। इसलिये विचारवान् पुरुषको चाहिये कि सांसारिक कर्मोंके सम्बन्धमें सङ्कल्प-विकल्प करनेवाले मनको रोक दे—कैद कर ले। बस, ऐसा करते ही उसे अभय पदकी, परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ॥ ३८ ॥ संसारमें भगवान्‌के जन्मकी और लीलाकी बहुत-सी मङ्गलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। उनको सुनते रहना चाहिये। उन गुणों और लीलाओंका स्मरण दिलानेवाले भगवान्‌के बहुत-से नाम भी प्रसिद्ध हैं। लाज-संकोच छोडक़र उनका गान करते रहना चाहिये। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थानमें आसक्ति न करके विचरण करते रहना चाहिये ॥ ३९ ॥ जो इस प्रकार विशुद्ध व्रत—नियम ले लेता है, उसके हृदयमें अपने परम प्रियतम प्रभुके नाम-कीर्तनसे अनुरागका, प्रेमका अङ्कुर उग आता है। उसका चित्त द्रवित हो जाता है। अब वह साधारण लोगोंकी स्थितिसे ऊपर उठ जाता है। लोगोंकी मान्यताओं, धारणाओंसे परे हो जाता है। दम्भसे नहीं, स्वभावसे ही मतवाला-सा होकर कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है। कभी ऊँचे स्वरसे भगवान्‌को पुकारने लगता है, तो कभी मधुर स्वरसे उनके गुणोंका गान करने लगता है। कभी- कभी जब वह अपने प्रियतमको अपने नेत्रोंके सामने अनुभव करता है, तब उन्हें रिझानेके लिये नृत्य भी करने लगता है ॥ ४० ॥ राजन् ! यह आकाश, वायु, अग्रि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र—सब-के-सब भगवान्‌के शरीर हैं। सभी रूपोंमें स्वयं भगवान्‌ प्रकट हैं। ऐसा समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आ जाता है— चाहे वह प्राणी हो या अप्राणी—उसे अनन्यभावसे भगवद्भावसे प्रणाम करता है ॥ ४१ ॥ जैसे भोजन करनेवालेको प्रत्येक ग्रासके साथ ही तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवनशक्तिका सञ्चार) और क्षुधा-निवृत्ति—ये तीनों एक साथ होते जाते हैं; वैसे ही जो मनुष्य भगवान्‌की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजनके प्रत्येक क्षणमें भगवान्‌के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद प्रभुके स्वरूपका अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओंमें वैराग्य—इन तीनोंकी एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है ॥ ४२ ॥ राजन् ! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्तिके द्वारा भगवान्‌के चरणकमलोंका ही भजन करता है, उसे भगवान्‌के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसारके प्रति वैराग्य और अपने प्रियतम भगवान्‌के स्वरूपकी स्फूर्ति—ये सब अवश्य ही प्राप्त होते हैं; वह भागवत हो जाता है और जब ये सब प्राप्त हो जाते हैं, तब वह स्वयं परम शान्तिका अनुभव करने लगता है ॥ ४३ ॥

राजा निमिने पूछा—योगीश्वर ! अब आप कृपा करके भगवद्भक्तका लक्षण वर्णन कीजिये। उसके क्या धर्म हैं ? और कैसा स्वभाव होता है ? वह मनुष्योंके साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है ? क्या बोलता है ? और किन लक्षणोंके कारण भगवान्‌ का प्यारा होता है ? ॥ ४४ ॥

अब नौ योगीश्वरों में से दूसरे हरिजी बोले—राजन् ! आत्मस्वरूप भगवान्‌ समस्त प्राणियोंमें आत्मारूपसे—नियन्तारूपसे स्थित हैं। जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ताको ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान्‌में ही आधेयरूपसे अथवा अध्यस्तरूपसे स्थित हैं, अर्थात् वास्तवमें भगवत्स्वरूप ही हैं—इस प्रकारका जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान्‌का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये ॥ ४५ ॥ जो भगवान्‌ से प्रेम, उनके भक्तोंसे मित्रता, दुखी और अज्ञानियोंपर कृपा तथा भगवान्‌ से द्वेष करनेवालोंकी उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटिका भागवत है ॥ ४६ ॥ और जो भगवान्‌ के अर्चा-विग्रह—मूर्ति आदिकी पूजा तो श्रद्धासे करता है, परन्तु भगवान्‌के भक्तों या दूसरे लोगोंकी विशेष सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणीका भगवद्भक्त है ॥ ४७ ॥ जो श्रोत्र-नेत्र आदि इन्द्रियोंके द्वारा शब्द-रूप आदि विषयोंका ग्रहण तो करता है; परन्तु अपनी इच्छाके प्रतिकूल विषयोंसे द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयोंके मिलनेपर हर्षित नहीं होता—उसकी यह दृष्टि बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान्‌ की माया है—वह पुरुष उत्तम भागवत है ॥ ४८ ॥ संसारके धर्म हैं—जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा। ये क्रमश: शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिको प्राप्त होते ही रहते हैं। जो पुरुष भगवान्‌ की स्मृतिमें इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहनेपर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है ॥ ४९ ॥ जिसके मनमें विषय-भोगकी इच्छा, कर्म-प्रवृत्ति और उनके बीज वासनाओंका उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान्‌ वासुदेवमें ही निवास करता है, वह उत्तम भगवद्भक्त है ॥ ५० ॥ जिनका इस शरीरमें न तो सत्कुलमें जन्म, तपस्या आदि कर्मसे तथा न वर्ण, आश्रम एवं जातिसे ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान्‌का प्यारा है ॥ ५१ ॥ जो धन-सम्पत्ति अथवा शरीर आदिमें ‘यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकारका भेद-भाव नहीं रखता, समस्त पदार्थोंमें समस्वरूप परमात्माको देखता रहता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा सङ्कल्पसे विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान्‌ का उत्तम भक्त है ॥ ५२ ॥ राजन् ! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्त:करणको भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते हैं—भगवान्‌ के ऐसे चरणकमलोंसे आधे क्षण, आधे पलके लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणोंकी सन्निधि और सेवामें ही संलग्र रहता है; यहाँतक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवनकी राज्य- लक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृतिका तार नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मीकी ओर ध्यान ही नहीं देता; वही पुरुष वास्तवमें भगवद्भक्त वैष्णवोंमें अग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है ॥ ५३ ॥ रासलीलाके अवसरपर नृत्य-गतिसे भाँति-भाँतिके पाद-विन्यास करनेवाले निखिल सौन्दर्य-माधुर्य-निधि भगवान्‌के चरणोंके अङ्गुलि-नखकी मणि-चन्द्रिकासे जिन शरणागत भक्तजनोंके हृदयका विरहजन्य संताप एक बार दूर हो चुका है, उनके हृदयमें वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रोदय होनेपर सूर्यका ताप नहीं लग सकता ॥ ५४ ॥ विवशतासे नामोच्चारण करनेपर भी सम्पूर्ण अघ-राशिको नष्ट कर देनेवाले स्वयं भगवान्‌ श्रीहरि जिसके हृदय को क्षणभरके लिये भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेमकी रस्सीसे उनके चरण-कमलोंको बाँध रखा है, वास्तवमें ऐसा पुरुष ही भगवान्‌ के भक्तोंमें प्रधान है ॥ ५५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...