॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०१)
माया, माया से पार होने के
उपाय
तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण
श्रीराजोवाच
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परस्य
विष्णोरीशस्य मायिनां अपि मोहिनीम् ।
मायां वेदितुमिच्छामो भगवन्तो ब्रुवन्तु नः ॥ १
॥
नानुतृप्ये जुषन् युष्मद्वचो हरिकथामृतम् ।
संसारतापनिस्तप्तो मर्त्यः तत्तापभेषजम् ॥ २ ॥
श्री अन्तरिक्ष उवाच -
एभिर्भूतानि
भूतात्मा महाभूतैर्महाभुज ।
ससर्जोच्चावचान्याद्यः स्वमात्रात्मप्रसिद्धये ॥
३ ॥
एवं सृष्टानि भूतानि प्रविष्टः पञ्चधातुभिः ।
एकधा दशधाऽऽत्मानं विभजन् जुषते गुणान् ॥ ४ ॥
गुणैर्गुणान् स भुञ्जान आत्मप्रद्योतितैः प्रभुः
।
मन्यमान इदं सृष्टं आत्मानमिह सज्जते ॥ ५ ॥
कर्माणि कर्मभिः कुर्वन् सनिमित्तानि देहभृत् ।
तत्तत् कर्मफलं गृह्णन् भ्रमतीह सुखेतरम् ॥ ६ ॥
इत्थं कर्मगतीर्गच्छन् बह्वभद्रवहाः पुमान् ।
आभूतसंप्लवात्सर्गप्रलयावश्नुतेऽवशः ॥ ७ ॥
धातूपप्लव आसन्ने व्यक्तं द्रव्यगुणात्मकम् ।
अनादिनिधनः कालो ह्यव्यक्तायापकर्षति ॥ ८ ॥
शतवर्षा ह्यनावृष्टिः भविष्यत्युल्बणा भुवि ।
तत्कालोपचितोष्णार्को लोकान् त्रीन् प्रतपिष्यति
॥ ९ ॥
पातालतलमारभ्य सङ्कर्षणमुखानलः ।
दहन् ऊर्ध्वशिखो विष्वग् वर्धते वायुनेरितः ॥ १०
॥
सांवर्तको मेघगणो वर्षति स्म शतं समाः ।
धाराभिर्हस्तिहस्ताभिः लीयते सलिले विराट् ॥ ११
॥
ततो विराजमुत्सृज्य वैराजः पुरुषो नृप ।
अव्यक्तं विशते सूक्ष्मं निरिन्धन इवानलः ॥ १२ ॥
वायुना हृतगन्धा भूः सलिलत्वाय कल्पते ।
सलिलं तद्धृतरसं ज्योतिष्ट्वायोपकल्पते ॥ १३ ॥
हृतरूपं तु तमसा वायौ ज्योतिः प्रलीयते ।
हृतस्पर्शोऽवकाशेन वायुर्नभसि लीयते ॥ १४ ॥
कालात्मना हृतगुणं नभ आत्मनि लीयते ।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सह वैकारिकैर्नृप ।
प्रविशन्ति ह्यहङ्कारं स्वगुणैः अहमात्मनि ॥ १५
॥
एषा माया भगवतः सर्गस्थित्यन्तकारिणी ।
त्रिवर्णा वर्णितास्माभिः किं भूयः
श्रोतुमिच्छसि ॥ १६ ॥
राजा निमिने पूछा—भगवन् !
सर्वशक्तिमान् परमकारण विष्णुभगवान् की माया बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित कर
देती है, उसे कोई पहचान नहीं पाता; (और आप कहते हैं कि भक्त उसे देखा करता है।) अत: अब मैं उस मायाका
स्वरूप जानना चाहता हूँ, आपलोग कृपा करके बतलाइये ॥ १ ॥ योगीश्वरो ! मैं एक मृत्युका शिकार
मनुष्य हूँ। संसारके तरह-तरहके तापोंने मुझे बहुत दिनोंसे तपा रखा है। आपलोग जो
भगवत्कथारूप अमृतका पान करा रहे हैं, वह उन तापोंको मिटानेकी एकमात्र ओषधि है;
इसलिये मैं आपलोगोंकी इस वाणीका सेवन करते-करते तृप्त नहीं होता।
आप कृपया और कहिये ॥ २ ॥
अब तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्ष जी ने
कहा—राजन् ! (भगवान् की माया स्वरूपत: अनिर्वचनीय है,
इसलिये उसके कार्यों के द्वारा ही उसका निरूपण होता है।) आदि-पुरुष
परमात्मा जिस शक्तिसे सम्पूर्ण भूतोंके कारण बनते हैं और उनके विषय-भोग तथा
मोक्षकी सिद्धिके लिये अथवा अपने उपासकोंकी उत्कृष्ट सिद्धिके लिये स्वनिर्मित
पञ्चभूतोंके द्वारा नाना प्रकारके देव, मनुष्य आदि शरीरोंकी सृष्टि करते हैं,
उसीको माया कहते हैं ॥ ३ ॥ इस प्रकार पञ्चमहाभूतोंके द्वारा बने हुए
प्राणिशरीरों में उन्होंने अन्तर्यामीरूपसे प्रवेश किया और अपनेको ही पहले एक मनके
रूपमें और इसके बाद पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय—इन दस रूपोंमें
विभक्त कर दिया तथा उन्हींके द्वारा विषयोंका भोग कराने लगे ॥ ४ ॥ वह देहाभिमानी
जीव अन्तर्यामीके द्वारा प्रकाशित इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका भोग करता है और इस
पञ्चभूतोंके द्वारा निर्मित शरीरको आत्मा—अपना स्वरूप मानकर उसीमें आसक्त हो जाता
है। (यह भगवान्की माया है) ॥ ५ ॥ अब वह कर्मेन्द्रियोंसे सकाम कर्म करता है और
उनके अनुसार शुभ कर्मका फल सुख और अशुभ कर्मका फल दु:ख भोग करने लगता है और
शरीरधारी होकर इस संसारमें भटकने लगता है। यह भगवान्की माया है ॥ ६ ॥ इस प्रकार
यह जीव ऐसी अनेक अमङ्गलमय कर्मगतियोंको, उनके फलोंको प्राप्त होता है और महाभूतोंके प्रलयपर्यन्त विवश होकर
जन्मके बाद मृत्यु और मृत्युके बाद जन्मको प्राप्त होता रहता है—यह भगवान्की माया
है ॥ ७ ॥ जब पञ्चभूतोंके प्रलयका समय आता है,
तब अनादि और अनन्त काल स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य एवं गुणरूप इस
समस्त व्यक्त सृष्टिको अव्यक्तकी ओर, उसके मूल कारणकी ओर खींचता है—यह भगवान्की माया है ॥ ८ ॥ उस समय
पृथ्वीपर लगातार सौ वर्षतक भयङ्कर सूखा पड़ता है,
वर्षा बिलकुल नहीं होती; प्रलयकालकी शक्तिसे सूर्यकी उष्णता और भी बढ़ जाती है तथा वे तीनों
लोकोंको तपाने लगते हैं—यह भगवान् की माया है ॥ ९ ॥ उस समय शेषनाग—सङ्कर्षणके
मुँहसे आगकी प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायुकी प्रेरणासे वे लपटें पाताललोकसे
जलाना आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं— यह भगवान्की
माया है ॥ १० ॥ इसके बाद प्रलयकालीन सांवर्तक मेघगण हाथीकी सूँडके समान मोटी-मोटी
धाराओंसे सौ वर्षतक बरसता रहता है। उससे यह विराट् ब्रह्माण्ड जलमें डूब जाता
है—यह भगवान्की माया है ॥ ११ ॥ राजन् ! उस समय जैसे बिना र्ईंधनके आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट् पुरुष ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड-शरीरको छोडक़र
सूक्ष्मस्वरूप अव्यक्तमें लीन हो जाते हैं—यह भगवान्की माया है ॥ १२ ॥ वायु
पृथ्वीकी गन्ध खींच लेती है, जिससे वह जलके रूपमें हो जाती है और जब वही वायु जलके रसको खींच
लेती है, तब वह जल अपना कारण अग्रि बन जाता है— यह भगवान्की माया है ॥ १३ ॥
जब अन्धकार अग्रिका रूप छीन लेता है, तब वह अग्रि वायुमें लीन हो जाती है और जब अवकाशरूप आकाश वायुकी
स्पर्श-शक्ति छीन लेता है, तब वह आकाशमें लीन हो जाता है—यह भगवान्की माया है ॥ १४ ॥ राजन् !
तदनन्तर कालरूप ईश्वर आकाशके शब्द गुणको हरण कर लेता है जिससे वह तामस अहङ्कार में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस
अहङ्कार में लीन होती हैं। मन सात्त्विक अहङ्कारसे उत्पन्न देवताओंके साथ सात्त्विक
अहङ्कार में प्रवेश कर जाता है तथा अपने तीन प्रकारके कार्योंके साथ अहङ्कार
महत्त्वमें लीन हो जाता है। महत्तत्त्व प्रकृतिमें और प्रकृति ब्रह्ममें लीन होती
है। फिर इसीके उलटे क्रमसे सृष्टि होती है। यह भगवान्की माया है ॥ १५ ॥ यह सृष्टि, स्थिति और संहार करनेवाली त्रिगुणमयी माया है। इसका हमने आपसे
वर्णन किया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ?
॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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