॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०२)
माया, माया से पार होने के
उपाय
तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण
श्रीराजोवाच
-
यथेताम्
ऐश्वरीं मायां दुस्तरामकृतात्मभिः ।
तरन्त्यञ्जः
स्थूलधियो महर्ष इदमुच्यताम् ॥ १७ ॥
श्रीप्रबुद्ध उवाच -
कर्माण्यारभमाणानां
दुःखहत्यै सुखाय च ।
पश्येत्पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम् ॥ १८
॥
नित्यार्तिदेन वित्तेन दुर्लभेनात्ममृत्युना ।
गृहापत्याप्तपशुभिः का प्रीतिः साधितैश्चलैः ॥
१९ ॥
एवं लोकं परं विद्यात् नश्वरं कर्मनिर्मितम् ।
सतुल्यातिशयध्वंसं यथा मण्डलवर्तिनाम् ॥ २० ॥
तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय
उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥
२१ ॥
तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् गुर्वात्मदैवतः
।
अमाययानुवृत्त्या यैः तुष्येदात्माऽऽत्मदो हरिः
॥ २२ ॥
सर्वतो मनसोऽसङ्गमादौ सङ्गं च साधुषु ।
दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम् ॥
२३ ॥
शौचं तपस्तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वन्द्वसंज्ञयोः ॥
२४ ॥
सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम् ।
विविक्तचीरवसनं सन्तोषं येन केनचित् ॥ २५ ॥
श्रद्धां भागवते शास्त्रेऽनिन्दामन्यत्र चापि हि
।
मनोवाक्कर्मदण्डं च सत्यं शमदमावपि ॥ २६ ॥
श्रवणं कीर्तनं ध्यानं हरेरद्भुतकर्मणः ।
जन्मकर्मगुणानां च तदर्थेऽखिलचेष्टितम् ॥ २७ ॥
इष्टं दत्तं तपो जप्तं वृत्तं यच्चात्मनः
प्रियम् ।
दारान् सुतान् गृहान् प्राणान् यत्परस्मै
निवेदनम् ॥ २८ ॥
एवं कृष्णात्मनाथेषु मनुष्येषु च सौहृदम् ।
परिचर्यां चोभयत्र महत्सु नृषु साधुषु ॥ २९ ॥
परस्परानुकथनं पावनं भगवद्यशः ।
मिथो रतिर्मिथस्तुष्टिः निवृत्तिर्मिथ आत्मनः ॥
३० ॥
स्मरन्तः स्मारन्तश्च मिथोऽघौघहरं हरिम् ।
भक्त्या सञ्जातया भक्त्या बिभ्रत्युत्पुलकां
तनुम् ॥ ३१ ॥
क्वचिद्
रुदन्त्यच्युतचिन्तया क्वचिद्
हसन्ति नन्दन्ति वदन्त्यलौकिकाः ।
नृत्यन्ति गायन्त्यनुशीलयन्त्यजं
भवन्ति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः ॥ ३२ ॥
इति
भागवतान् धर्मान् शिक्षन् भक्त्या तदुत्थया ।
नारायणपरो
मायां अञ्जस्तरति दुस्तराम् ॥ ३३ ॥
राजा निमिने पूछा—महर्षिजी ! इस
भगवान्की मायाको पार करना उन लोगोंके लिये तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मनको वशमें नहीं कर पाये हैं। अब आप कृपा करके यह बताइये
कि जो लोग शरीर आदिमें आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार कर सकते हैं ? ॥ १७ ॥
अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजी
बोले—राजन् ! स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध आदि बन्धनोंमें बँधे हुए संसारी मनुष्य सुखकी
प्राप्ति और दु:खकी निवृत्तिके लिये बड़े-बड़े कर्म करते रहते हैं। जो पुरुष
मायाके पार जाना चाहता है, उसको विचार करना चाहिये कि उनके कर्मोंका फल किस प्रकार विपरीत
होता जाता है। वे सुखके बदले दु:ख पाते हैं और दु:ख-निवृत्तिके स्थानपर दिनोंदिन
दु:ख बढ़ता ही जाता है ॥ १८ ॥ एक धनको ही लो। इससे दिन-पर-दिन दु:ख बढ़ता ही है, इसको पाना भी कठिन है और यदि किसी प्रकार मिल भी जाय तो आत्माके लिये
तो यह मृत्युस्वरूप ही है। जो इसकी उलझनोंमें पड़ जाता है,
वह अपने-आपको भूल जाता है। इसी प्रकार घर,
पुत्र, स्वजन-
सम्बन्धी, पशुधन आदि भी अनित्य और नाशवान् ही हैं;
यदि कोई इन्हें जुटा भी ले तो इनसे क्या सुख-शान्ति मिल सकती है ? ॥ १९ ॥ इसी प्रकार जो मनुष्य मायासे पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चाहिये कि मरनेके बाद प्राप्त होनेवाले
लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान् हैं।
क्योंकि इस लोककी वस्तुओंके समान वे
भी कुछ सीमित कर्मोंके सीमित फलमात्र हैं। वहाँ भी पृथ्वीके छोटे-छोटे राजाओंके
समान बराबरवालोंसे होड़ अथवा लाग-डाँट रहती है,
अधिक ऐश्वर्य और सुखवालोंके प्रति छिद्रान्वेषण तथा ईर्ष्या-द्वेषका
भाव रहता है, कम सुख और ऐश्वर्यवालोंके प्रति घृणा रहती है एवं कर्मोंका फल पूरा
हो जानेपर वहाँसे पतन तो होता ही है। उसका नाश निश्चित है। नाशका भय वहाँ भी नहीं
छूट पाता ॥ २० ॥ इसलिये जो परम कल्याणका जिज्ञासु हो ,
उसे गुरुदेवकी शरण लेनी चाहिये। गुरुदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रह्म—वेदोंके पारदर्शी विद्वान् हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें;
और साथ ही परब्रह्ममें परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभवके द्वारा प्राप्त हुई रहस्यकी बातोंको बता सकें।
उनका चित्त शान्त हो, व्यवहारके
प्रपञ्चमें विशेष प्रवृत्त न हो ॥ २१ ॥ जिज्ञासुको चाहिये कि गुरुको ही अपना परम
प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने। उनकी निष्कपटभावसे सेवा करे और उनके पास रहकर
भागवतधर्मकी—भगवान्- को प्राप्त करानेवाले भक्तिभावके साधनोंकी क्रियात्मक शिक्षा
ग्रहण करे। इन्हीं साधनोंसे सर्वात्मा एवं भक्तको अपने आत्माका दान करनेवाले
भगवान् प्रसन्न होते हैं ॥ २२ ॥ पहले शरीर,
सन्तान आदिमें मनकी अनासक्ति सीखे। फिर भगवान्के भक्तोंसे प्रेम
कैसा करना चाहिये—यह सीखे। इसके पश्चात् प्राणियोंके प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनयकी निष्कपट भावसे शिक्षा ग्रहण करे ॥ २३ ॥ मिट्टी, जल आदिसे बाह्य शरीरकी पवित्रता,
छल-कपट आदिके त्यागसे भीतरकी पवित्रता,
अपने धर्मका अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें हर्ष-विषादसे रहित होना सीखे ॥ २४ ॥
सर्वत्र अर्थात् समस्त देश, काल और वस्तुओंमें चेतनरूपसे आत्मा और नियन्तारूपसे ईश्वरको देखना, एकान्तसेवन, ‘यही मेरा घर है’—ऐसा भाव न रखना,
गृहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्यागी हो तो फटे- पुराने
पवित्र चिथड़े, जो कुछ प्रारब्धके अनुसार मिल जाय,
उसीमें सन्तोष करना सीखे ॥ २५ ॥ भगवान्की प्राप्तिका मार्ग
बतलानेवाले शास्त्रोंमें श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्रकी निन्दा न करना, प्राणायामके द्वारा मनका, मौनके द्वारा वाणीका और वासनाहीनताके अभ्याससे कर्मोंका संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियोंको अपने-अपने गोलकोंमें स्थिर रखना और मनको कहीं बाहर न
जाने देना सीखे ॥ २६ ॥ राजन् ! भगवान्की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हींका श्रवण,
कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीरसे जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान्के लिये करना सीखे ॥ २७ ॥ यज्ञ,
दान, तप
अथवा जप, सदाचारका पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपनेको प्रिय लगता हो—सब-का-सब भगवान्के
चरणोंमें निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे ॥ २८ ॥ जिन संत पुरुषोंने
सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णका अपने आत्मा और स्वामीके रूपमें साक्षात्कार
कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जङ्गम दोनों प्रकारके प्राणियोंकी सेवा;
विशेष करके मनुष्योंकी, मनुष्योंमें भी परोपकारी सज्जनोंकी और उनमें भी भगवत्प्रेमी
संतोंकी करना सीखे ॥ २९ ॥ भगवान्के परम पावन यशके सम्बन्धमें ही एक-दूसरेसे
बातचीत करना और इस प्रकारके साधकोंका इकट्ठेहोकर आपसमें प्रेम करना, आपसमें सन्तुष्ट रहना और प्रपञ्चसे निवृत्त होकर आपसमें ही
आध्यात्मिक शान्तिका अनुभव करना सीखे ॥ ३० ॥ राजन् ! श्रीकृष्ण राशि-राशि पापोंको
एक क्षणमें भस्म कर देते हैं। सब उन्हींका स्मरण करें और एक-दूसरेको स्मरण करावें।
इस प्रकार साधन-भक्तिका अनुष्ठान करते-करते प्रेम- भक्तिका उदय हो जाता है और वे
प्रेमोद्रेकसे पुलकित-शरीर धारण करते हैं ॥ ३१ ॥ उनके हृदयकी बड़ी विलक्षण स्थिति
होती है। कभी-कभी वे इस प्रकार चिन्ता करने लगते हैं कि अबतक भगवान् नहीं मिले, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किससे पूछूँ, कौन मुझे उनकी प्राप्ति करावे ?
इस तरह सोचते- सोचते वे रोने लगते हैं तो कभी भगवान्की लीलाकी
स्फूर्ति हो जानेसे ऐसा देखकर कि परमैश्वर्य- शाली भगवान् गोपियोंके डरसे छिपे
हुए हैं, खिलखिलाकर हँसने लगते हैं। कभी-कभी उनके प्रेम और दर्शनकी
अनुभूतिसे आनन्दमग्र हो जाते हैं तो कभी लोकातीत भावमें स्थित होकर भगवान् के साथ
बातचीत करने लगते हैं । कभी मानो उन्हें सुना रहे हों,
इस प्रकार उनके गुणोंका गान छेड़ देते हैं और कभी नाच-नाचकर उन्हें
रिझाने लगते हैं। कभी-कभी उन्हें अपने पास न पाकर इधर-उधर ढूँढऩे लगते हैं तो
कभी-कभी उनसे एक होकर, उनकी
सन्निधि में स्थित होकर परम शान्तिका अनुभव करते और चुप हो जाते हैं ॥ ३२ ॥ राजन्
! जो इस प्रकार भागवतधर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है,
उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान्
नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन है ॥ ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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