बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पांचवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

भगवान्‌ के यश-कीर्तन की महिमा और देवर्षि नारदजी का पूर्वचरित्र

सूत उवाच ।

अथ तं सुखमासीन उपासीनं बृहच्छ्रवाः ।
देवर्षिः प्राह विप्रर्षिं वीणापाणिः स्मयन्निव ॥ १ ॥

नारद उवाच ।

पाराशर्य महाभाग भवतः कच्चिदात्मना ।
परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा ॥ २ ॥
जिज्ञासितं सुसंपन्नं अपि ते महदद्‍भुतम् ।
कृतवान् भारतं यस्त्वं सर्वार्थपरिबृंहितम् ॥ ३ ॥
जिज्ञासितमधीतं च यत्तद् ब्रह्म सनातनम् ।
तथापि शोचस्यात्मानं अकृतार्थ इव प्रभो ॥ ४ ॥

व्यास उवाच ।

अस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तं
     तथापि नात्मा परितुष्यते मे ।
तन्मूलमव्यक्तमगाधबोधं
     पृच्छामहे त्वात्मभवात्मभूतम् ॥ ५ ॥
स वै भवान् वेद समस्तगुह्यं
     उपासितो यत्पुरुषः पुराणः ।
परावरेशो मनसैव विश्वं
     सृजत्यवत्यत्ति गुणैरसङ्गः ॥ ६ ॥
त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकीं
     अन्तश्चरो वायुरिवात्मसाक्षी ।
परावरे ब्रह्मणि धर्मतो व्रतैः
     स्नातस्य मे न्यूनमलं विचक्ष्व ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणापाणि परम यशस्वी देवर्षि नारदने मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रहमर्षि व्यासजीसे कहा ॥ १ ॥
नारदजीने प्रश्न किया—महाभाग व्यासजी ! आपके शरीर एवं मन—दोनों ही अपने कर्म एवं चिन्तनसे सन्तुष्ट है न? ॥ २ ॥ अवश्य ही आपकी जिज्ञासा तो भलीभाँति पूर्ण हो गयी है; क्योंकि आपने जो यह महाभारत की रचना की है, वह बड़ी ही अद्भुत है। वह धर्म आदि सभी पुरुषार्थों से परिपूर्ण है ॥ ३ ॥ सनातन ब्रह्मतत्त्व को भी आपने खूब विचारा है और जान भी लिया है । फिर भी प्रभु ! आप अकृतार्थ पुरुष के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं ? ॥ ४ ॥
व्यासजीने कहा—आपने मेरे विषयमें जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। वैसा होनेपर भी मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। आप साक्षात् ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं। इसलिये मैं आपसे ही इसका कारण पूछता हूँ ॥ ५ ॥ नारदजी ! आप समस्त गोपनीय रहस्योंको जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुष की उपासना की है, जो प्रकृति- पुरुष दोनोंके स्वामी हैं और असङ्ग रहते हुए ही अपने सङ्कल्पमात्र से गुणों के द्वारा संसारकी सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं ॥ ६ ॥ आप सूर्य की भाँति तीनों लोकोंमें भ्रमण करते रहते हैं और योगबलसे प्राणवायुके समान सबके भीतर रहकर अन्त:करणों के साक्षी भी हैं। योगानुष्ठान और नियमों के द्वारा परब्रह्म और शब्दब्रह्म दोनों की पूर्ण प्राप्ति कर लेनेपर भी मुझमें जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - पांचवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

भगवान्‌ के यश-कीर्तन की महिमा और देवर्षि नारदजी का पूर्वचरित्र

सूत उवाच ।

अथ तं सुखमासीन उपासीनं बृहच्छ्रवाः ।
देवर्षिः प्राह विप्रर्षिं वीणापाणिः स्मयन्निव ॥ १ ॥

नारद उवाच ।

पाराशर्य महाभाग भवतः कच्चिदात्मना ।
परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा ॥ २ ॥
जिज्ञासितं सुसंपन्नं अपि ते महदद्‍भुतम् ।
कृतवान् भारतं यस्त्वं सर्वार्थपरिबृंहितम् ॥ ३ ॥
जिज्ञासितमधीतं च यत्तद् ब्रह्म सनातनम् ।
तथापि शोचस्यात्मानं अकृतार्थ इव प्रभो ॥ ४ ॥

व्यास उवाच ।

अस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तं
     तथापि नात्मा परितुष्यते मे ।
तन्मूलमव्यक्तमगाधबोधं
     पृच्छामहे त्वात्मभवात्मभूतम् ॥ ५ ॥
स वै भवान् वेद समस्तगुह्यं
     उपासितो यत्पुरुषः पुराणः ।
परावरेशो मनसैव विश्वं
     सृजत्यवत्यत्ति गुणैरसङ्गः ॥ ६ ॥
त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकीं
     अन्तश्चरो वायुरिवात्मसाक्षी ।
परावरे ब्रह्मणि धर्मतो व्रतैः
     स्नातस्य मे न्यूनमलं विचक्ष्व ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणापाणि परम यशस्वी देवर्षि नारदने मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रहमर्षि व्यासजीसे कहा ॥ १ ॥
नारदजीने प्रश्न किया—महाभाग व्यासजी ! आपके शरीर एवं मन—दोनों ही अपने कर्म एवं चिन्तनसे सन्तुष्ट है न? ॥ २ ॥ अवश्य ही आपकी जिज्ञासा तो भलीभाँति पूर्ण हो गयी है; क्योंकि आपने जो यह महाभारत की रचना की है, वह बड़ी ही अद्भुत है। वह धर्म आदि सभी पुरुषार्थों से परिपूर्ण है ॥ ३ ॥ सनातन ब्रह्मतत्त्व को भी आपने खूब विचारा है और जान भी लिया है । फिर भी प्रभु ! आप अकृतार्थ पुरुष के समान अपने विषय में शोक क्यों कर रहे हैं ? ॥ ४ ॥
व्यासजीने कहा—आपने मेरे विषयमें जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। वैसा होनेपर भी मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। आप साक्षात् ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं। इसलिये मैं आपसे ही इसका कारण पूछता हूँ ॥ ५ ॥ नारदजी ! आप समस्त गोपनीय रहस्योंको जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुष की उपासना की है, जो प्रकृति- पुरुष दोनोंके स्वामी हैं और असङ्ग रहते हुए ही अपने सङ्कल्पमात्र से गुणों के द्वारा संसारकी सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं ॥ ६ ॥ आप सूर्य की भाँति तीनों लोकोंमें भ्रमण करते रहते हैं और योगबलसे प्राणवायुके समान सबके भीतर रहकर अन्त:करणों के साक्षी भी हैं। योगानुष्ठान और नियमों के द्वारा परब्रह्म और शब्दब्रह्म दोनों की पूर्ण प्राप्ति कर लेनेपर भी मुझमें जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये ॥ ७ ॥

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मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०६)

महर्षि व्यासका असन्तोष

एवं प्रवृत्तस्य सदा भूतानां श्रेयसि द्विजाः ।
सर्वात्मकेनापि यदा नातुष्यत् हृदयं ततः ॥ २६ ॥
नातिप्रसीदद् हृदयः सरस्वत्यास्तटे शुचौ ।
वितर्कयन् विविक्तस्थ इदं प्रोवाच धर्मवित् ॥ २७ ॥
धृतव्रतेन हि मया छन्दांसि गुरवोऽग्नयः ।
मानिता निर्व्यलीकेन गृहीतं चानुशासनम् ॥ २८ ॥
भारतव्यपदेशेन ह्याम्नायार्थश्च दर्शितः ।
दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्रीशूद्रादिभिरप्युत ॥ २९ ॥
तथापि बत मे दैह्यो ह्यात्मा चैवात्मना विभुः ।
असंपम्पन्न इवाभाति ब्रह्मवर्चस्य सत्तमः ॥ ३० ॥
किं वा भागवता धर्मा न प्रायेण निरूपिताः ।
प्रियाः परमहंसानां त एव ह्यच्युतप्रियाः ॥ ३१ ॥
तस्यैवं खिलमात्मानं मन्यमानस्य खिद्यतः ।
कृष्णस्य नारदोऽभ्यागाद् आश्रमं प्रागुदाहृतम् ॥ ३२ ॥
तमभिज्ञाय सहसा प्रत्युत्थायागतं मुनिः ।
पूजयामास विधिवत् नारदं सुरपूजितम् ॥ ३३ ॥

शौनकादि ऋषियो ! यद्यपि व्यासजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्तिसे सदा-सर्वदा प्राणियोंके कल्याणमें ही लगे रहे, तथापि उनके हृदयको सन्तोष नहीं हुआ ॥ २६ ॥ उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदीके पवित्र तटपर एकान्तमें बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे— ॥ २७ ॥ ‘मैंने निष्कपट भावसे ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्नियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञाका पालन किया है ॥ २८ ॥ महाभारतकी रचना के बहाने मैंने वेदके अर्थको खोल दिया है—जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने- अपने धर्म-कर्मका ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं ॥ २९ ॥ यद्यपि मैं ब्रह्मतेजसे सम्पन्न एवं समर्थ हूँ, तथापि मेरा हृदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है ॥ ३० ॥ अवश्य ही अबतक मैंने भगवान्‌ को प्राप्त करानेवाले धर्मोंका प्राय: निरूपण नहीं किया है। वे ही धर्म परमहंसोंको प्रिय हैं और वे ही भगवान्‌को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी अपूर्णताका यही कारण है)’ ॥ ३१ ॥ श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास इस प्रकार अपनेको अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रमपर देवर्षि नारदजी आ पहुँचे ॥ ३२ ॥ उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये। उन्होंने देवताओंके द्वारा सम्मानित देवर्षि नारदकी विधिपूर्वक पूजा की ॥ ३३ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०५)

महर्षि व्यासका असन्तोष

ऋग्यजुःसामाथर्वाख्या वेदाश्चत्वार उद्धृताः ।
इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते ॥ २० ॥
तत्रर्ग्वेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः कविः ।
वैशंपायन एवैको निष्णातो यजुषामुत ॥ २१ ॥
अथर्वाङ्‌गिरसामासीत् सुमन्तुर्दारुणो मुनिः ।
इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षणः ॥ २२ ॥
त एत ऋषयो वेदं स्वं स्वं व्यस्यन्ननेकधा ।
शिष्यैः प्रशिष्यैः तत् शिष्यैः वेदास्ते शाखिनोऽभवन् ॥ २३ ॥
त एव वेदा दुर्मेधैः धार्यन्ते पुरुषैर्यथा ।
एवं चकार भगवान् व्यासः कृपणवत्सलः ॥ २४ ॥
स्त्रीशूद्रद्विजबंधूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ।
कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं भवेदिह ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥ २५ ॥

व्यासजीके द्वारा ऋक्, यजु:, साम और अथर्व—इन चार वेदोंका उद्धार (पृथक्करण) हुआ। इतिहास और पुराणोंको पाँचवाँ वेद कहा जाता है ॥ २० ॥ उनमेंसे ऋग्वेदके पैल, साम-गानके विद्वान् जैमिनि एवं यजुर्वेदके एकमात्र स्नातक वैशम्पायन हुए ॥ २१ ॥ अथर्ववेदमें प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि। इतिहास और पुराणोंके स्नातक मेरे पिता रोमहर्षण थे ॥ २२ ॥ इन पूर्वोक्त ऋषियोंने अपनी-अपनी शाखाको और भी अनेक भागोंमें विभक्त कर दिया। इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य और उनके शिष्योंद्वारा वेदोंकी बहुत-सी शाखाएँ बन गयीं ॥ २३ ॥ कम समझवाले पुरुषोंपर कृपा करके भगवान्‌ वेदव्यासने इसलिये ऐसा विभाग कर दिया—कि जिन लोगोंको स्मरणशक्ति नहीं है या कम है, वे भी वेदोंको धारण कर सकें ॥ २४ ॥ स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति—तीनों ही वेद-श्रवणके अधिकारी नहीं हैं। इसलिये वे कल्याणकारी शास्त्रोक्त कर्मोंके आचरणमें भूल कर बैठते हैं। अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाय, यह सोचकर महामुनि व्यासजीने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहासकी रचना की ॥ २५ ॥

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सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०४)

महर्षि व्यासका असन्तोष

सूत उवाच

द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये ।
जातः पराशराद् योगी वासव्यां कलया हरेः ॥ १४ ॥
स कदाचित् सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं शुचिः ।
विविक्तदेश आसीन उदिते रविमण्डले ॥ १५ ॥
परावरज्ञः स ऋषिः कालेनाव्यक्तरंहसा ।
युगधर्मव्यतिकरं प्राप्तं भुवि युगे युगे ॥ १६ ॥
भौतिकानां च भावानां शक्तिह्रासं च तत्कृतम् ।
अश्रद्दधानान्निःसत्त्वान् दुर्मेधान् ह्रसितायुषः ॥ १७ ॥
दुर्भगांश्च जनान् वीक्ष्य मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
सर्ववर्णाश्रमाणां यद् दध्यौ हितममोघदृक् ॥ १८ ॥
चातुर्होत्रं कर्म शुद्धं प्रजानां वीक्ष्य वैदिकम् ।
व्यदधाद् यज्ञसन्तत्यै वेदमेकं चतुर्विधम् ॥ १९ ॥

सूतजीने कहा—इस वर्तमान चतुर्युगीके तीसरे युग द्वापरमें महर्षि पराशरके द्वारा वसु-कन्या सत्यवतीके गर्भसे भगवान्‌ के कलावतार योगिराज व्यासजीका जन्म हुआ ॥ १४ ॥ एक दिन वे सूर्योदयके समय सरस्वतीके पवित्र जलमें स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थानपर बैठे हुए थे ॥ १५ ॥ महर्षि भूत और भविष्यको जानते थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते, ऐसे समयके फेरसे प्रत्येक युगमें धर्मसङ्करता और उसके प्रभावसे भौतिक वस्तुओंकी भी शक्तिका ह्रास होता रहता है। संसारके लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्यका ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है। लोगोंकी इस भाग्यहीनताको देखकर उन मुनीश्वरने अपनी दिव्यदृष्टिसे समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इसपर विचार किया ॥ १६—१८ ॥ उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुर्होत्र [*]  कर्म लोगोंका हृदय शुद्ध करनेवाला है। इस दृष्टिसे यज्ञोंका विस्तार करनेके लिये उन्होंने एक ही वेदके चार विभाग कर दिये ॥ १९ ॥ 

........................................................................
[*] होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—ये चार होता हैं। इनके द्वारा सम्पादित होनेवाले अग्रिष्टोमादि यज्ञको चातुर्होत्र कहते हैं।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०३)

महर्षि व्यासका असन्तोष

अभिमन्युसुतं सूत प्राहुर्भागवतोत्तमम् ।
तस्य जन्म महाश्चर्यं कर्माणि च गृणीहि नः ॥ ९ ॥
स सम्राट् कस्य वा हेतोः पाण्डूनां मानवर्धनः ।
प्रायोपविष्टो गङ्गायां अनादृत्य अधिराट् श्रियम् ॥ १० ॥
नमन्ति यत्पादनिकेतमात्मनः
     शिवाय हानीय धनानि शत्रवः ।
कथं स वीरः श्रियमङ्ग दुस्त्यजां
     युवैषतोत् स्रष्टुमहो सहासुभिः ॥ ११ ॥
शिवाय लोकस्य भवाय भूतये
     य उत्तमश्लोकपरायणा जनाः ।
जीवन्ति नात्मार्थमसौ पराश्रयं
     मुमोच निर्विद्य कुतः कलेवरम् ॥ १२ ॥
तत्सर्वं नः समाचक्ष्व पृष्टो यदिह किञ्चन ।
मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् ॥ १३ ॥

सूतजी ! हमने सुना है कि अभिमन्युनन्दन परीक्षित्‌ भगवान्‌ के बड़े प्रेमी भक्त थे। उनके अत्यन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मोंका भी वर्णन कीजिये ॥ ९ ॥ वे तो पाण्डववंश के गौरव बढ़ानेवाले सम्राट् थे। वे भला, किस कारणसे साम्राज्यलक्ष्मी का परित्याग करके गङ्गातटपर मृत्यु-पर्यन्त अनशनका व्रत लेकर बैठे थे ? ॥ १० ॥ शत्रुगण अपने भलेके लिये बहुत-सा धन लाकर उनके चरण रखनेकी चौकीको नमस्कार करते थे। वे एक वीर युवक थे। उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मीको, अपने प्राणोंके साथ भला, क्यों त्याग देनेकी इच्छा की ॥ ११ ॥ जिन लोगोंका जीवन भगवान्‌के आश्रित है, वे तो संसारके परम कल्याण, अभ्युदय और समृद्धिके लिये ही जीवन धारण करते हैं। उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। उनका शरीर तो दूसरोंके हितके लिये था, उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया ॥ १२ ॥ वेदवाणीको छोड क़र अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान् हैं। सूतजी ! इसलिये इस समय जो कुछ हमने आपसे पूछा  है, वह सब कृपा करके हमें कहिये ॥१३॥

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रविवार, 25 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०२)

महर्षि व्यासका असन्तोष

दृष्ट्वानुयान्तमृषिमात्मजमप्यनग्नं
देव्यो ह्रिया परिदधुर्न सुतस्य चित्रम् ।
तद्‌वीक्ष्य पृच्छति मुनौ जगदुस्तवास्ति
स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः ॥ ५ ॥
कथमालक्षितः पौरैः संप्राप्तः कुरुजाङ्गलान् ।
उन्मत्तमूकजडवद् विचरन् गजसाह्वये ॥ ६ ॥
कथं वा पाण्डवेयस्य राजर्षेर्मुनिना सह ।
संवादः समभूत् तात यत्रैषा सात्वती श्रुतिः ॥ ७ ॥
स गोदोहनमात्रं हि गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
अवेक्षते महाभागः तीर्थीकुर्वन् तदाश्रमम् ॥ ८ ॥

व्यासजी जब संन्यासके लिये वनकी ओर जाते हुए अपने पुत्रका पीछा कर रहे थे, उस समय जलमें स्नान करनेवाली स्त्रियोंने नंगे शुकदेव को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परन्तु वस्त्र पहने हुए व्यासजीको देखकर लज्जासे कपड़े पहन लिये थे। इस आश्चर्यको देखकर जब व्यासजीने उन स्त्रियोंसे इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टिमें तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परन्तु आपके पुत्रकी शुद्ध दृष्टिमें यह भेद नहीं है’ ॥ ५ ॥ कुरुजाङ्गल देशमें पहुँचकर हस्तिनापुरमें वे पागल, गूँगे तथा जडके समान विचरते होंगे। नगरवासियों ने उन्हें कैसे पहचाना ? ॥ ६ ॥ पाण्डवनन्दन राजर्षि परीक्षित्‌ का इन मौनी शुकदेवजी के साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह भागवतसंहिता कही गयी ? ॥ ७ ॥ महाभाग श्रीशुकदेव जी तो गृहस्थों के घरों को तीर्थस्वरूप बना देने के लिये उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रहते हैं, जितनी देर में एक गाय दुही जाती है ॥ ८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०१)

महर्षि व्यासका असन्तोष

व्यास उवाच ।

इति ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां दीर्घसत्रिणाम् ।
वृद्धः कुलपतिः सूतं बह्‌वृचः शौनकोऽब्रवीत् ॥ १ ॥

शौनक उवाच ।

सूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर ।
कथां भागवतीं पुण्यां यदाह भगवान् शुकः ॥ २ ॥
कस्मिन् युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना ।
कुतः सञ्चोदितः कृष्णः कृतवान् संहितां मुनिः ॥ ३ ॥
तस्य पुत्रो महायोगी समदृङ् निर्विकल्पकः ।
एकान्तमतिः उन्निद्रो गूढो मूढ इवेयते ॥ ४ ॥

व्यासजी कहते हैं—उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्या-वयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनकजी ने सूतजीकी पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा ॥ १ ॥
शौनकजी बोले—सूतजी ! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं। जो कथा भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी ने कही थी, वही भगवान्‌ की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये ॥ २ ॥ वह कथा किस युगमें, किस स्थानपर और किस कारणसे हुई थी ? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायनने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिताका निर्माण किया था ? ॥ ३ ॥ उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेदभाव-रहित, संसार-निद्रा से जगे एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मामें ही स्थित रहते हैं। वे छिपे रहनेके कारण मूढ़-से प्रतीत होते हैं ॥ ४ ॥ 

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शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट..१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट १२)

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवान् ऋषिः ॥ ४० ॥
निःश्रेयसाय लोकस्य धन्यं स्वस्त्ययनं महत् ।
तदिदं ग्राहयामास सुतं आत्मवतां वरम् ॥ ४१ ॥
सर्ववेदेतिहासानां सारं सारं समुद्धृतम् ।
स तु संश्रावयामास महाराजं परीक्षितम् ॥ ४२ ॥
प्रायोपविष्टं गङ्गायां परीतं परमर्षिभिः ।
कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ॥ ४३ ॥
कलौ नष्टदृशामेष पुराणार्कोऽधुनोदितः ।
तत्र कीर्तयतो विप्रा विप्रर्षेर्भूरितेजसः ॥ ४४ ॥
अहं चाध्यगमं तत्र निविष्टस्तद् अनुग्रहात् ।
सोऽहं वः श्रावयिष्यामि यथाधीतं यथामति ॥ ४५ ॥

भगवान्‌ वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नामका पुराण बनाया है ॥ ४० ॥ उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराण को लोगोंके परम कल्याणके लिये अपने आत्मज्ञानिशिरोमणि पुत्रको ग्रहण कराया ॥ ४१ ॥ इसमें सारे वेद और इतिहासों का सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌ को यह सुनाया ॥ ४२ ॥ उस समय वे परमर्षियों से घिरे हुए आमरण अनशन का व्रत लेकर गङ्गातट पर बैठे हुए थे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदिके साथ अपने परमधाम को पधार गये, तब इस कलियुगमें जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकारसे अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियो ! जब महा- तेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराणकी कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमतिसे इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धिने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसीके अनुसार इसे मैं आपलोगों को सुनाऊँगा ॥ ४३—४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट..११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट ११)

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन
स वेद धातुः पदवीं परस्य
     दुरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणेः ।
योऽमायया सन्ततयानुवृत्त्या
     भजेत तत्पादसरोजगन्धम् ॥ ३८ ॥
अथेह धन्या भगवन्त इत्थं
     यद्‌वासुदेवेऽखिललोकनाथे ।
कुर्वन्ति सर्वात्मकमात्मभावं
     न यत्र भूयः परिवर्त उग्रः ॥ ३९ ॥

चक्रपाणि भगवान्‌ की शक्ति और पराक्रम अनन्त हैं—उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत् के  निर्माता होनेपर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीलाके रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भाव से उनके चरणकमलोंकी दिव्य गन्धका सेवन करता है—सेवा-भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है ॥ ३८ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आप लोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्न-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पडऩा होता ॥ ३९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...