#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सोलहवाँ
अध्याय (पोस्ट 06)
भाण्डीर-वनमें
नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा
और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पति की मधुर लीलाएँ
श्रीरासरंगे
जनवर्जिते परे
रेमे हरी रासरसेन राधया ।
वृंदावने भृङ्गमयूरकूज-
ल्लते चरत्येव रतीश्वरः परः ॥४४॥
श्रीराधया कृष्णहरिः परात्मा
ननर्त गोवर्द्धनकंदरासु ।
मत्तालिषु प्रस्रवणैः सरोभि-
र्विराजितासु द्युतिमल्लतासु ॥४५॥
चकार कृष्णो यमुनां समेत्य
वरं विहारं वृषभानुपुत्र्या ।
राधाकराल्लक्षदलं सपद्मं
धावन्गृहीत्वा यमुनाजलेषु ॥४६॥
राधा हरेः पीतपटं च वंशीं
वेत्रं गृहीत्वा सहसा हसंती ।
देहीति वंशीं वदतो हरेश्च
जगाद राधा कमलं नु देहि ॥४७॥
तस्यै ददौ देववरोऽथ पद्मं
राधा ददौ पीततटं च वंशीम् ।
वेत्रं च तस्मै हरये तयोः पुन-
र्बभूव लीला यमुनातटेषु ॥४८॥
ततश्च भांडीरवने प्रियाया-
श्चकार शृङ्गारमलं मनोज्ञम् ।
पत्रावलीयावककज्जलाद्यैः
पुष्पैः सुरत्नैर्व्रजगोपरत्नः ॥४९॥
हरेश्च शृङ्गारमलं प्रकर्तुं
समुद्यता तत्र यदा हि राधा ।
तदैव कृष्णस्तु बभूव बालो
विहाय कैशोरवपुः स्वयं हि ॥५०॥
नंदेन दत्तं शिशुमेव यादृशं
भूमौ लुठंतं प्ररुदंतमाययौ ।
हरिं विलोक्याशु रुरोद राधिका
तनोषि मायां नु कथं हरे मयि ॥५१॥
इत्थं रुदंतीं सहसा विषण्णा-
माकाशवागाह तदैव राधाम् ।
शोचं नु राधे इह मा कुरु त्वं
मनोरथस्ते भविया हि पश्चात् ॥५२॥
श्रुत्वाथ राधा हि हरिं गृहीत्वा
गताऽऽशु गेहे व्रजराजपत्न्याः ।
दत्त्वा च बालं किल नंदपत्न्या
उवाच दत्तः पथि ते च भर्त्रा ॥५३॥
उवाच राधां नृप नंदगेहिनी
धन्याऽसि राधे वृषभानुकन्यके ।
त्वया शिशुर्मे परिरक्षितो भया-
न्मेघावृते व्योम्नि भयातुरो वने ॥५४॥
संपूजिता श्लाघितसद्गुणा सा
सुनंदिता श्रीवृषभानुपुत्री ।
तदा ह्यनुज्ञाप्य यशोमतीं सा
शनैः स्वगेहं हि जगाम राधा ॥५५॥
इत्थं हरेर्गुप्तकथा च वर्णिता
राधाविवाहस्य सुमंगलावृता ।
श्रुत्वा च यैर्वा पठिता च पाठिता
तान्पापवृन्दा न कदा स्पृशंति ॥५६॥
रास-रङ्गस्थलीके
निर्जन प्रदेशमें पहुँचकर श्रीहरिने श्रीराधाके साथ रासका रस लेते हुए लीला-रमण
किया । भ्रमरों और मयूरोंके कल-कूजनसे मुखरित लताओंवाले वृन्दावनमें वे दूसरे
कामदेवकी भाँति विचर रहे थे। परमात्मा श्रीकृष्ण हरि ने,
जहाँ मतवाले भ्रमर गुञ्जारव करते थे, बहुत-से
झरने तथा सरोवर जिनकी शोभा बढ़ाते थे और जिनमें दीप्तिमती लता वल्लरियाँ प्रकाश
फैलाती थीं, गोवर्धन की उन कन्दराओं में श्रीराधा के साथ
नृत्य किया ॥ ४४-४५ ।।
तत्पश्चात्
श्रीकृष्णने यमुना में प्रवेश करके वृषभानु- नन्दिनी के साथ विहार किया। वे
यमुनाजल में खिले हुए लक्षदल कमल को राधाके हाथ से छीनकर भाग चले । तब श्रीराधाने
भी हँसते-हँसते उनका पीछा किया और उनका पीताम्बर, वंशी तथा बेंतकी छड़ी अपने अधिकारमें कर लीं। श्रीहरि कहने लगे- 'मेरी बाँसुरी दे दो ।' तब राधाने उत्तर दिया- 'मेरा कमल लौटा दो ।' तब देवेश्वर श्रीकृष्णने उन्हें
कमल दे दिया। फिर राधाने भी पीताम्बर, वंशी और बेंत
श्रीहरिके हाथमें लौटा दिये। इसके बाद फिर यमुनाके किनारे उनकी मनोहर लीलाएँ होने
लगीं ॥। ४६ – ४८ ॥
तदनन्तर
भाण्डीर वनमें जाकर व्रज - गोप - रत्न श्रीनन्दनन्दनने अपने हाथोंसे प्रियाका
मनोहर शृङ्गार किया— उनके मुखपर पत्र - रचना की, दोनों पैरोंमें महावर लगाया, नेत्रों में काजलकी
पतली रेखा खींच दी तथा उत्तमोत्तम रत्नों और फूलोंसे भी उनका शृङ्गार किया। इसके
बाद जब श्रीराधा भी श्रीहरिको शृङ्गार धारण करानेके लिये उद्यत हुईं, उसी समय श्रीकृष्ण अपने किशोररूपको त्यागकर छोटे-से बालक बन गये । नन्दने
जिस शिशुको जिस रूपमें राधाके हाथोंमें दिया था, उसी रूपमें
वे धरतीपर लोटने और भयसे रोने लगे। श्रीहरिको इस रूपमें देखकर श्रीराधिका भी
तत्काल विलाप करने लगीं और बोलीं- 'हरे ! मुझपर माया क्यों
फैलाते हो ?' इस प्रकार विषादग्रस्त होकर रोती हुई
श्रीराधासे सहसा आकाशवाणीने कहा— 'राधे ! इस समय सोच न करो।
तुम्हारा मनोरथ कुछ कालके पश्चात् पूर्ण होगा' ।। ४९ - ५२ ॥
यह
सुनकर श्रीराधा शिशुरूपधारी श्रीकृष्णको लेकर तुरंत व्रजराजकी धर्मपत्नी यशोदाजीके
घर गयीं और उनके हाथमें बालकको देकर बोलीं- 'आपके
पतिदेवने मार्गमें इस बालकको मुझे दे दिया था ।' उस समय
नन्द- गृहिणीने श्रीराधासे कहा – 'वृषभानु- नन्दिनि राधे !
तुम धन्य हो; क्योंकि तुमने इस समय, जब
कि आकाश मेघोंकी घटासे आच्छन्न है, वनके भीतर भयभीत हुए मेरे
नन्हे-से लालाकी पूर्णतया रक्षा की है।' यों कहकर नन्दरानीने
श्रीराधाका भलीभाँति सत्कार किया और उनके सद्गुणोंकी प्रशंसा की। इससे
वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे यशोदाजीकी आज्ञा ले धीरे-धीरे
अपने घर चली गयीं ॥ ५३ गयीं ॥। ५३ – ५५ ॥
राजन
इस प्रकार श्रीराधाके विवाहकी परम मङ्गल- मयी गुप्त कथाका यहाँ वर्णन किया गया। जो
लोग इसे सुनते-पढ़ते अथवा सुनाते हैं, उन्हें
कभी पापोंका स्पर्श नहीं प्राप्त होता ।। ५६ ।।
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद-बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीराधिकाके विवाहका वर्णन' नामक सोलहवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से