॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित् को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना
सूत उवाच ।
एवं चिन्तयतो जिष्णोः कृष्णपादसरोरुहम ।
सौहार्देनातिगाढेन शान्ताऽऽसीद्विमला मतिः ॥२८॥
वासुदेवांघ्र्यनुध्यानपरिबृंहितरंहसा ।
भक्त्या निर्मथिताशेषकषायाधिषणोऽर्जुनः ॥२९॥
गीतं भगवता ज्ञान यत् तत् संग्राममूर्धनि ।
कालकर्मतमोरुद्धं पुनरध्यगमद् विभुः ॥३०॥
विशोको ब्रह्मसम्पत्या संछिन्नद्वैतसंशयः ।
लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिंगत्वादसम्भवः ॥३१॥
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का चिन्तन करते- करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी ॥ २८ ॥ उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गयी। भक्ति के वेगने उनके हृदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया ॥ २९ ॥ उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान् के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुन: स्मरण हो आया, जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिये विस्मृति हो गयी थी ॥ ३० ॥ ब्रह्मज्ञान- की प्राप्ति से माया का आवरण भङ्ग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैत का संशय निवृत्त हो गया। सूक्ष्मशरीर भङ्ग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्युके चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये ॥ ३१ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
ऊँ श्री वासुदेवाय नमः
जवाब देंहटाएंJay Shri Hari
जवाब देंहटाएंश्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
जवाब देंहटाएंहे नाथ नारायण वासुदेव
🌺💖🌹🥀जय श्री हरि:🙏🙏
ॐ श्री परमात्मने नमः