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रविवार, 21 जुलाई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०२)
शनिवार, 20 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
चौदहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
कालिय का गरुड के भय से बचने के लिये यमुना-जल में निवास का
रहस्य
राजोवाच –
द्वीपे रमणके ब्रह्मन् सर्पान्
अन्यान्विना कथम् ।
एतन्मे ब्रूहि सकलं कालियस्याभवद्भयम् ॥ १ ॥
श्रीनारद उवाच -
तत्र नागान्तको नित्यं नागसंघं जघान ह ।
गतक्षोभं चैकदा ते तार्क्ष्यं प्राहुर्भयातुराः ॥ २ ॥
नागाः ऊचुः -
हे गरुत्मन् नमस्तुभ्यं त्वं साक्षाद्विष्णुवाहनः ।
अस्मानत्सि यदा सर्पान् कथं नो जीवनं भवेत् ॥ ३ ॥
तस्माद्बलिं गृहाणाशु मासे मासे गृहात्पृथक् ।
वनस्पतिसुधान्नानां उपचारैर्विधानतः ॥ ४ ॥
गरुड उवाच -
एकः सर्पस्तु मे देयोभवद्भिर्वा गृहात्पृथक् ।
कथं पचामि तमृते बलिं वीटकवत्परम् ॥ ५ ॥
श्रीनारद उवाच -
तथास्तु चोक्तास्ते सर्वे गरुडाय महात्मने ।
गोपीथायात्मजो राजन् नित्यं दिव्यं बलिं ददुः ॥ ६ ॥
कालियस्य गृहस्यापि समयोऽभूद्यदा नृप ।
तदा तार्क्ष्यबलिं सर्वं बुभुजे कालियो बलात् ॥ ७ ॥
तदाऽऽगतः प्रकुपितो वेगतः कालियोपरि ।
चकार पादविक्षेपं गरुडश्चंडविक्रमः ॥ ८ ॥
गरुडांघ्रिप्रहारेण कालियो मूर्छितोऽभवत् ।
पुनरुत्थाय जिह्वाभिः प्रावलीढन् मुखं श्वसन् ॥ ९ ॥
प्रसार्य स्वं फणशतं कालियः फणिनां वरः ।
व्यदशद्गरुडं वेगाद्दद्भिर्विषमयैर्बली ॥ १० ॥
गृहीत्वा तं च तुंडेन गरुडो दिव्यवाहनः ।
भूपृष्ठे पोथयामास पक्षाभ्यां ताडयन्मुहुः ॥ ११ ॥
तुण्डाद्विनिर्गतः सर्पः तत्पक्षान्विचकर्ष ह ।
तत्पादौ वेष्टयंस्तुद्यन् फूत्कारं व्यदधन्मुहुः ॥ १२ ॥
तार्क्ष्यपक्षौ
च पतितौ भूमध्ये द्वौ विरेजतु: ।
एकेन
ब्रह्मिणोऽभूवन् नीलकंठा द्वितीयत: ॥ १३ ॥
तेषां तु दर्शनं पुण्यं सर्वकामफलप्रदम् ।
शुक्लपक्षे मैथिलेंद्र दशम्यामाश्विनस्य तत् ॥
१४ ॥
कुपितो गरुडस्तं वै नीत्वा तुंडेन कालियम् ।
निपात्य भूम्यां सहसा तत्तनुं विचकर्ष ह ॥ १५ ॥
तदा दुद्राव तत्तुंडात् कालियो भयविह्वह्लः ।
तमन्वधावत् सहसा पक्षिराट् चंडविक्रमः ॥ १६ ॥
सप्त द्वीपान् सप्तखंडान् सप्तसिंधूंस्ततः फणी ।
यत्र यत्र गतस्तार्क्ष्यं तत्र तत्र ददर्श ह ॥ १७ ॥
भूर्लोकं च भुवर्लोकं स्वर्लोकं प्रगतः फणी ।
महर्लोकं ततो धावन् जनलोकं जगाम ह ॥ १८ ॥
यत्रैव गरुडे प्राप्तेऽ धोऽधो लोकं पुनर्गतः ।
श्रीकृष्णस्य भयात्केऽपि रक्षां तस्य न संदधुः ॥ १९ ॥
कुत्रापि न सुखे जाते कालियोऽपि भयातुरः ।
जगाम देवदेवस्य शेषस्य चरणांतिके ॥ २० ॥
नत्वा प्रणम्य तं शेषं परिक्रम्य कृतांजलिः ।
दीनो भयातुरः प्राह दीर्घपृष्ठ प्रकंपितः ॥ २१ ॥
राजा
बहुलाश्वने पूछा- ब्रह्मन् ! रमणकद्वीपमें रहनेवाले अन्य सर्पोंको छोड़कर केवल कालियनाग-
को ही गरुडसे भय क्यों हुआ ? यह सारी बात आप मुझे बताइये ॥ १ ॥
श्रीनारदजीने
कहा- राजन् ! रमणकद्वीपमें नागोंका विनाश करनेवाले गरुड प्रतिदिन जाकर बहुत-से नागोंका
संहार करते थे। अतः एक दिन भयसे व्याकुल हुए वहाँके सपने उस द्वीपमें पहुँचे हुए क्षुब्ध
गरुडसे इस प्रकार कहा ॥ २ ॥
नाग बोले-
हे गरुत्मन् ! तुम्हें नमस्कार है। तुम साक्षात् भगवान् विष्णुके वाहन हो। जब इस प्रकार
हम सर्पोंको खाते रहोगे तो हमारा जीवन कैसे सुरक्षित रहेगा। इसलिये प्रत्येक मासमें
एक बार पृथक्-पृथक् एक-एक घरसे एक सर्पकी बलि ले लिया करो । उसके साथ वनस्पति तथा अमृतके
समान मधुर अन्नकी सेवा भी प्रस्तुत की जायगी। यह सब विधानके अनुसार तुम शीघ्र स्वीकार
करो ॥ ३-४ ॥
गरुडजी
बोले- आपलोग एक-एक घरसे एक-एक नागकी बलि प्रतिदिन दिया करें; अन्यथा सर्पके बिना दूसरी
वस्तुओंकी बलिसे मैं कैसे पेट भर सकूँगा ? वह तो मेरे लिये पानके बीड़ेके तुल्य होगी
॥ ५ ॥
नारदजी
कहते हैं- राजन् ! उनके यों कहनेपर सब सपने आत्मरक्षाके लिये एक-एक करके उन महात्मा
गरुडके लिये नित्य दिव्य बलि देना आरम्भ किया ॥ ६ ॥
नरेश्वर
! जब कालियके घरसे बलि मिलनेका अवसर आया, तब उसने गरुडको दी जानेवाली बलिकी सारी वस्तुएँ
बलपूर्वक स्वयं ही भक्षण कर लीं। उस समय प्रचण्ड पराक्रमी गरुड बड़े रोषमें भरकर आये।
आते ही उन्होंने कालियनागके ऊपर अपने पंजेसे प्रहार किया। गरुडके उस पाद-प्रहारसे कालिय
मूर्च्छित हो गया। फिर उठकर लंबी साँस लेते और जिह्वाओं से मुँह
चाटते हुए नागोंमें श्रेष्ठ बलवान् कालियने अपने सौ फण फैलाकर विषैले दाँतोंसे गरुडको
वेगपूर्वक डँस लिया ॥ ९-१० ॥
तब
दिव्य वाहन गरुड- ने उसे चोंच में पकड़कर पृथ्वीपर दे मारा और
पाँखों से बारंबार पीटना आरम्भ किया । गरुड की
चोंच से निकल कर सर्पने उनके दोनों पंजों को
आवेष्टित कर लिया और बारंबार फुंकार करते हुए उनकी पाँखोंको खींचना आरम्भ किया ॥ ११-१२ ॥
उस
समय उनकी पाँखसे दो पक्षी उत्पन्न हुए — नीलकण्ठ और मयूर । मिथिलेश्वर ! आश्विन शुक्ला
दशमीको उन पक्षियोंका दर्शन पवित्र एवं सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंका देनेवाला माना गया
है ॥ १३-१४ ॥
रोष से भरे हुए गरुड ने पुनः कालिय को चोंच से पकड़कर पृथ्वी पर
पटक दिया और सहसा वे उसके शरीर को घसीटने लगे। तब भयसे विह्वल
हुआ कालिय गरुडकी चोंचसे छूटकर भागा। प्रचण्ड पराक्रमी पक्षिराज गरुड भी सहसा उसका
पीछा करने लगे । सात द्वीपों, सात खण्डों और सात समुद्रोंतक वह जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ
उसने गरुडको पीछा करते देखा । वह नाग भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक और महर्लोकमें क्रमशः
जा पहुँचा और वहाँसे भागता हुआ जनलोकमें पहुँच गया ॥ १५-१८ ॥
जहाँ
जाता, वहीं गरुड भी पहुँच जाते । इसलिये वह पुनः नीचे-नीचेके लोकोंमें क्रमशः गया;
किंतु श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) के भयसे किसीने उसकी रक्षा नहीं की। जब उसे कहीं भी
चैन नहीं मिली, तब भयसे व्याकुल कालिय देवाधिदेव शेषके चरणोंके निकट गया और भगवान्
शेषको प्रणाम करके परिक्रमापूर्वक हाथ जोड़ विशाल पृष्ठवाला कालिय दीन, भयातुर और कम्पित
होकर बोला ॥ १९- २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०१)
शुक्रवार, 19 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
तेरहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 03 )
मुनिवर
वेदशिरा और अश्वशिरा का परस्पर के श्राप से क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना
शेष उवाच -
अवधिं कुरु यावत्त्वं धरोद्धारस्य मे प्रभो ।
भूभारं धारयिष्यामि तावत्ते वचनादिह ॥ २५ ॥
श्रीभगवानुवाच -
नित्यं सहस्रवदनैरुच्चारं च पृथक् पृथक् ।
मद्गुणस्फुरतां नाम्नां कुरु सर्पेंद्र सर्वतः ॥ २६ ॥
मन्नामानि च दिव्यानि यदा यांत्यवसानताम् ।
तदा भूभारमुत्तार्य फणिस्त्वं सुसुखी भव ॥ २७ ॥
शेष उवाच -
आधारोऽहं भविष्यामि मदाधारश्च को भवेत् ।
निराधारः कथं तोये तिष्ठामि कथय प्रभो ॥ २८ ॥
श्रीभगवानुवाच -
अहं च कमठो भूत्वा धारयिष्यामि ते तनुम् ।
महाभारमयीं दीर्घां मा शोचं क्रु मत्सखे ॥ २९ ॥
श्रीनारद उवाच -
तदा शेषः समुत्थाय नत्वा श्रीगरुडध्वजम् ।
जगाम नृप पातालादधो वै लक्षयोजनम् ॥ ३० ॥
गृहीत्वा स्वकरेणेदं गरिष्ठं भूमिमंडलम् ।
दधार स्वफणे शेषोऽप्येकस्मिंश्चंडविक्रमः ॥ ३१ ॥
संकर्षणेऽथ पाताले गतेऽनन्तपरात्परे ।
अन्ये फणीन्द्रास्तमनु विविशुर्ब्रह्मणोदिताः ॥ ३२ ॥
अतले वितले केचित्सुतले च महातले ।
तलातले तथा केचित्संप्राप्तास्ते रसातले ॥ ३३ ॥
तेभ्यस्तु ब्रह्मणा दत्तं द्वीपं रमणकं भुवि ।
कालियप्रमुखास्तस्मिन् अवसन्सुखसंवृताः ॥ ३४ ॥
इति ते कथितं राजन् कालियस्य कथानकम् ।
भुक्तिदं मुक्तिदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३५ ॥
शेषने
कहा - प्रभो ! पृथ्वीका भार उठानेके लिये आप कोई अवधि निश्चित कर दीजिये। जितने दिनकी
अवधि होगी, उतने समयतक मैं आपकी आज्ञासे भूमि का भार अपने सिरपर
धारण करूँगा ।। २५ ।।
श्रीभगवान्
बोले – नागराज ! तुम अपने सहस्र मुखोंसे प्रतिदिन पृथक्-पृथक् मेरे गुणोंसे स्फुरित
होनेवाले नूतन नामोंका सब ओर उच्चारण किया करो। जब मेरे दिव्य नाम समाप्त हो जायँ,
तब तुम अपने सिरसे पृथ्वीका भार उतारकर सुखी हो जाना ।। २६-२७ ॥
शेष ने कहा - प्रभो ! पृथ्वीका आधार तो मैं हो जाऊँगा, किंतु मेरा आधार
कौन होगा ? बिना किसी आधारके मैं जल के ऊपर कैसे स्थित रहूँगा
? ॥ २८ ॥
श्रीभगवान्
बोले- मेरे मित्र ! इसकी चिन्ता मत करो। मैं 'कच्छप' बनकर महान् भारसे युक्त तुम्हारे
विशाल शरीर को धारण करूँगा ॥ २९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— नरेश्वर ! तब शेषने उठकर भगवान् श्रीगरुडध्वजको नमस्कार किया । फिर वे पातालसे
लाख योजन नीचे चले गये । वहाँ अपने हाथसे इस अत्यन्त गुरुतर भूमण्डलको पकड़कर प्रचण्ड
पराक्रमी शेषने अपने एक ही फनपर धारण कर लिया । परात्पर अनन्तदेव संकर्षणके पाताल चले
जानेपर ब्रह्माजीकी प्रेरणासे अन्यान्य नागराज भी उनके पीछे-पीछे चले गये। कोई अतलमें,
कोई वितलमें, कोई सुतल और महातलमें तथा कितने ही तलातल एवं रसातलमें जाकर रहने लगे।
ब्रह्माजीने उन सपक लिये पृथ्वीपर 'रमणकद्वीप' प्रदान किया था। कालिय आदि नाग उसीमें
सुखपूर्वक निवास करने लगे। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे कालियका कथानक कह सुनाया,
जो सारभूत तथा भोग और मोक्ष देनेवाला है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३० – ३५ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्ग संहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'शेषके उपाख्यानका वर्णन' नामक
तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ११)
गुरुवार, 18 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
तेरहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
मुनिवर
वेदशिरा और अश्वशिरा का परस्पर के श्राप से क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना
श्रीनारद
उवाच -
उत्युक्त्वाथ गते विष्णौ मुनिरश्वशिरा नृप ।
साक्षात्काकभुषंडोऽभूद्योगींद्रो नीलपर्वते ॥ १५ ॥
रामभक्तो महातेजाः सर्वशास्त्रार्थदीपकः ।
रामायणं जगौ यो वै गरुडाय महात्मने ॥ १६ ॥
चाक्षुषे ह्यन्तरे प्राप्ते दक्षः प्राचेतसो नृप ।
कश्यपाय ददौ कन्या एकादश मनोहराः ॥ १७ ॥
तासां कद्रूश्च या श्रेष्ठा साऽद्यैव रोहिणी स्मृता ।
वसुदेवप्रिया यस्यां बलदेवोऽभवत्सुतः ॥ १८ ॥
सा कद्रूश्च महासर्पान् जनयामास कोटिशः ।
महोद्भटान् विषबलानुग्रान् पंचशताननान् ॥ १९ ॥
महाफणिधरान् कांश्चिद्दुःसहांश्च शताननान् ।
तेषां वेदशिरा नाम कालियोऽभून्महाफणी ॥ २० ॥
तेषामादौ फणीन्द्रोऽभूच्छेषोऽनन्तः परात्परः ।
सोऽद्यैव बलदेवोऽस्ति रामोऽनन्तोऽच्युताग्रजः ॥ २१ ॥
एकदा श्रीहरिः साक्षाद्भगवान् प्रकृतेः परः ।
शेषं प्राह प्रसन्नात्मा मेघगंभीरया गिरा ॥ २२ ॥
श्रीभगवानुवाच –
भूमंडलं
समाधातुं सामर्थ्यं कस्यचिन्न हि ।
तस्मादेनं महीगोलं मूर्ध्नि तं हि समुद्धर ॥ २३ ॥
अनंतविक्रमस्त्वं वै यतोऽनन्त इति स्मृतः ।
इदं कार्यं प्रकर्तव्यं जनकल्याणहेतवे ॥ २४ ॥
नारदजी
कहते हैं— नरेश्वर ! यों कहकर भगवान् विष्णु
जब चले गये, तब अश्वशिरा मुनि साक्षात् योगीन्द्र काकभुशुण्ड हो गये और नीलपर्वतपर
रहने लगे। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको प्रकाशित करनेवाले महातेजस्वी रामभक्त हो
गये। उन्होंने ही महात्मा गरुडको रामायणकी कथा सुनायी थी ।। १५-१६॥
मिथिलानरेश
! चाक्षुष मन्वन्तर के प्रारम्भ में प्रचेताओं के पुत्र प्रजापति दक्ष ने महर्षि कश्यप को अपनी परम मनोहर ग्यारह कन्याएँ पत्नीरूपमें प्रदान कीं। उन कन्याओं में जो श्रेष्ठ कद्रू थी, वही इस समय वसुदेवप्रिया रोहिणी होकर प्रकट
हुई हैं, जिनके पुत्र बलदेवजी हैं। उस कद्रूने करोड़ों महासर्पों को
जन्म दिया। वे सभी सर्प अत्यन्त उद्भट, विषरूपी बलसे सम्पन्न, उग्र तथा पाँच सौ फनों से युक्त थे ॥ १७-१९ ॥
वे
महान् मणिरत्न धारण किये रहते थे। उनमें से कोई-कोई सौ मुखोंवाले
एवं दुस्सह विषधर थे। उन्हींमें वेदशिरा 'कालिय' नामसे प्रसिद्ध महानाग हुए। उन सबमें
प्रथम राजा फणिराज शेष हुए, जो अनन्त एवं परात्पर परमेश्वर हैं। वे ही आजकल 'बलदेव'
के नामसे प्रसिद्ध हैं। वे ही राम, अनन्त और अच्युताग्रज आदि नाम धारण करते हैं ।।
२० - २१ ॥
एक
दिनकी बात है। प्रकृतिसे परे साक्षात् भगवान् श्रीहरिने प्रसन्नचित्त होकर मेघके समान
गम्भीर वाणीमें शेषसे कहा ॥ २२ ॥
श्रीभगवान् बोले-
इस भूमण्डलको अपने ऊपर धारण करनेकी शक्ति दूसरे किसीमें नहीं है, इसलिये इस भूगोलको
तुम्हीं अपने मस्तकपर धारण करो। तुम्हारा पराक्रम अनन्त है, इसीलिये तुम्हें 'अनन्त'
कहा गया है। जन-कल्याणके हेतु तुम्हें यह कार्य अवश्य करना चाहिये ।। २३-२४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट १०)
बुधवार, 17 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट
01 )
मुनिवर वेदशिरा और अश्वशिरा का परस्पर के श्राप से
क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना
वैदेह
उवाच -
यद्रजो दुर्लभं लोके योगिनां बहुजन्मभिः ।
तत्पादाब्जं हरेः साक्षाद्बभौ कालियमूर्द्धसु ॥ १ ॥
कोऽयं पूर्वं कुशलकृत्कालियो फणिनां वरः ।
एनं वेदितुमिच्छामि ब्रूहि देवर्षिसत्तम ॥ २ ॥
श्रीनारद उवाच -
स्वायंभुवान्तरे पूर्वं नाम्ना वेदशिरा मुनिः ।
विंध्याचले तपोऽकार्षीद्भृगुवंशसमुद्भवः ॥ ३ ॥
तदाश्रमे तपः कर्तुं प्राप्तो ह्यश्वशिरा मुनिः ।
तं वीक्ष्य रक्तनयनः प्राह वेदशिरा रुषा ॥ ४ ॥
वेदशिरा उवाच -
ममाश्रमे तपो विप्र मा कुर्याः सुखदं न हि ।
अन्यत्र ते तपोयोग्या भूमिर्नास्ति तपोधन ॥ ५ ॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वाऽथ वेदशिरसो वाक्यं ह्यश्वशिरा मुनिः ।
क्रोधयुक्तो रक्तनेत्रः प्राह तं मुनिपुंगवम् ॥ ६ ॥
अश्वशिरा उवाच -
महाविष्णोरियं भूमिः न ते मे मुनिसत्तम ।
कतिभिर्मुनिभिश्चात्र न कृतं तप उत्तमम् ॥ ७ ॥
श्वसन् सर्प इव त्वं भो वृथा क्रोधं करोषि हि ।
तदा सर्पो भव त्वं हि भूयात्ते गरुडाद्भयम् ॥ ८ ॥
वेदशिरा उवाच -
त्वं महादुरभिप्रायो लघुद्रोहे महोद्यमः ।
कार्यार्थी काम इव कौ त्वं काको भव दुर्मते ॥ ९ ॥
आविरासीत्ततो विष्णुरित्थं च शपतोस्तयोः ।
स्वस्वशापाद्दुःखितयोः सांत्वयामास तौ गिरा ॥ १० ॥
श्रीभगवानुवाच -
युवां तु मे समौ भक्तौ भुजाविव तनौ मुनी ।
स्ववाक्यं तु मृषा कर्तुं समर्थोऽहं मुनीश्वरौ ॥ ११ ॥
भक्तवाक्यं मृषा कर्तुं नेच्छामि शपथो मम ।
ते मूर्ध्नि हे वेदशिरः चरणौ मे भविष्यतः ॥ १२ ॥
तदा ते गरुडाद्भीतिः न भविष्यति कर्हिचित् ।
शृणु मेऽश्वशिरो वाक्यं शोचं मा कुरु मा कुरु ॥ १३ ॥
काकरूपेऽपि सुज्ञानं ते भविष्यति निश्चितम् ।
परं त्रैकालिकं ज्ञानं संयुतं योगसिद्धिभिः ॥ १४ ॥
विदेहराज
बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! संसारमें जिनकी धूलि अनेक जन्मोंमें योगियोंके लिये भी
दुर्लभ है, भगवान्के साक्षात् वे ही चरणारविन्द कालियके मस्तकोंपर सुशोभित हुए। नागोंमें
श्रेष्ठ यह = कालिय पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्य कर्म कर चुका था, जिससे इसको यह सौभाग्य
प्राप्त हुआ— यह मैं जानना चाहता हूँ। देवर्षिशिरोमणे ! यह बात मुझे बताइये ॥ १-२ ॥
नारदजीने
कहा- राजन् ! पूर्वकालकी बात है। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें वेदशिरा नामक मुनि, जिनकी
उत्पत्ति भृगुवंशमें हुई थी, विन्ध्य पर्वतपर तपस्या करते थे। उन्हींके आश्रमपर तपस्या
करनेके लिये अश्वशिरा मुनि आये। उन्हें देखकर वेदशिरा मुनिके नेत्र क्रोधसे लाल हो
गये और वे रोषपूर्वक बोले ।। ३-४ ॥
वेदशिराने
कहा - ब्रह्मन् ! मेरे आश्रममें तुम तपस्या न करो; क्योंकि वह सुखद नहीं होगी । तपोधन
! क्या और कहीं तुम्हारे तपके योग्य भूमि नहीं है ? ॥ ५ ॥
नारदजी
कहते हैं- राजन् ! वेदशिराकी यह बात सुनकर अश्वशिरा मुनिके भी नेत्र क्रोधसे लाल हो
गये और वे मुनिपुंगवसे बोले ॥ ६ ॥
अश्वशिराने
कहा – मुनिश्रेष्ठ ! यह भूमि तो महाविष्णुकी है; न तुम्हारी है न मेरी यहाँ कितने
मुनियोंने
उत्तम तपका अनुष्ठान नहीं किया है ? तुम व्यर्थ ही सर्पकी तरह फुफकारते हुए क्रोध प्रकट
करते हो, इसलिये सदाके लिये सर्प हो जाओ और तुम्हें गरुडसे भय प्राप्त हो । ७-८ ।।
वेदशिरा
बोले- दुर्मते ! तुम्हारा भाव बड़ा ही बडा दूषित हैं। तुम छोटे-से द्रोह या अपराधपर
भी महान् दण्ड देनेके लिये उद्यत रहते हो और अपना काम बनानेके लिये कौएकी तरह इस पृथ्वीपर
डोलते-फिरते हो; अतः तुम भी कौआ हो जाओ ।। ९ ।।
नारदजी कहते
हैं— इसी समय भगवान् विष्णु परस्पर शाप देते हुए दोनों ऋषियोंके बीच प्रकट हो गये वे
दोनों अपने-अपने शापसे बहुत दुखी थे । भगवान् ने अपनी वाणीद्वारा
उन दोनोंको सान्त्वना दी ॥ १० ॥
श्रीभगवान्
बोले – मुनियो ! जैसे शरीरमें दोनों भुजाएँ समान हैं, उसी प्रकार तुम दोनों समानरूपसे
मेरे भक्त हो । मुनीश्वरो ! मैं अपनी बात तो झूठी कर सकता हूँ, परंतु भक्तकी बातको
मिथ्या करना नहीं चाहता यह मेरी प्रतिज्ञा है । वेदशिरा ! सर्पकी अवस्थामें तुम्हारे
मस्तकपर मेरे दोनों चरण अङ्कित होंगे। उस समयसे तुम्हें गरुडसे कदापि भय नहीं होगा
। अश्वशिरा ! अब तुम मेरी बात सुनो। सोच न करो, सोच न करो । काकरूपमें रहनेपर भी तुम्हें
निश्चय ही उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा। योगसिद्धियोंसे युक्त उच्चकोटिका त्रिकालदर्शी
ज्ञान सुलभ होगा ।। ११ – १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०९)
मंगलवार, 16 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
बारहवाँ अध्याय ( पोस्ट
02 )
श्रीकृष्णद्वारा कालियदमन तथा दावानल-पान
नागपत्न्य ऊचुः -
नमः श्रीकृष्णचंद्रय गोलोकपतये नमः ।
असंख्यांडाधिपते परिपूर्णतमाय ते ॥ १८ ॥
श्रीराधापतये तुभ्यं व्रजाधीशाय ते नमः ।
नमः श्रीनंदपुत्राय यशोदानंदनाय ते ॥ १९ ॥
पाहि पाहि परदेव पन्नगं
त्वत्परं न शरणं जगत्त्रये ।
त्वम् पदात्परतरो हरिः स्वयं
लीलया किल तनोषि विग्रहम् ॥ २० ॥
श्रीनारद उवाच -
नागपत्नीस्तुतः कृष्णः कालियं विगतस्मयम् ।
विससर्ज हरिः साक्षात्परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ २१ ॥
पाहीति प्रवदंतं तं कालियं भगवान् हरिः ।
प्रणतं संमुखे प्राप्तं प्राह देवो जनार्दनः ॥ २२ ॥
श्रीभगवानुवाच -
द्वीपं रमणकं गच्छ सकलत्रसुहृद्वृतः ।
सुपर्णोद्यतनात्त्वां वै नाद्यान् मत्पादलांछितम् ॥ २३ ॥
श्रीनारद उवाच -
सर्पः कृष्णं तु संपूज्य परिक्रम्य प्रणम्य तम् ।
कलत्रपुत्रसहितो द्वीपं रमणकं ययौ ॥ २४ ॥
अथ श्रुत्वा कालियेन संग्रस्तं नंदनंदनम् ।
तत्राजग्मुर्गोपगणा नंदाद्याः सकला जनाः ॥ २५ ॥
जलाद्विनिर्गतं कृष्णं दृष्ट्वा मुमुदिरे जनाः ।
आश्लिष्य स्वसुतं नंदः परां मुदमवाप ह ॥ २६ ॥
सुतं लब्ध्वा यशोदा सा सुतकल्याणहेतवे ।
ददौ दानं द्विजातिभ्यः स्नेहस्नुतपयोधरा ॥ २७ ॥
तत्रैव शयनं चक्रुर्गोपाः सर्वे परिश्रमात् ।
कालिंदीनिकटे राजन् गोपीगोपगणैः सह ॥ २८ ॥
वेणुसंघर्षणोद्भूतो दावाग्निः प्रलयाग्निवत् ।
निशीथे सर्वतो गोपान् दग्धुमागतवान् स्फुरन् ॥ २९ ॥
गोपा वयस्याः श्रीकृष्णं सबलं शरणं गताः ।
नत्वा कृतांजलिं कृत्वा तमूचुर्भयकातराः ॥ ३० ॥
गोपा ऊचुः -
कृष्ण कृष्ण महाबाहो शरणागतवत्सल ।
पाहि पाहि वने कष्टाद्दावाग्नेः स्वजनान् प्रभो ॥ ३१ ॥
श्रीनारद उवाच -
स्वलोचनानि माभैष्ट न्यमीलयत माधवः ।
इत्युक्त्वा वह्निमपिबद्देवो योगेश्वरेश्वरः ॥ ३२ ॥
प्रातर्गोपगणैः सार्द्धं विस्मितैर्नंदनंदनः ।
गोगणैः सहितः श्रीमद्व्रजमंडलमाययौ ॥ ३३ ॥
नापपत्त्रियाँ
बोलीं- भगवन्! आप परिपूर्णतम परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति हैं । आप गोलोकनाथ
श्रीकृष्णचन्द्रको हमारा बारंबार नमस्कार है । व्रजके अधीश्वर आप श्रीराधावल्लभको नमस्कार
है । नन्दके लाला एवं यशोदानन्दनको नमस्कार है। परमदेव ! आप इस नागकी रक्षा कीजिये,
रक्षा कीजिये । तीनों लोकों में आपके सिवा दूसरा कोई इसे शरण देनेवाला नहीं है। आप
स्वयं साक्षात् परात्पर श्रीहरि हैं और लीलासे ही स्वच्छन्दतापूर्वक नाना प्रकारके
श्रीविग्रहों का विस्तार करते हैं ॥ १८-२०
॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— अबतक कालियनागका गर्व चूर्ण हो गया था । नागपत्नियोंद्वारा किये गये इस स्तवनके
पश्चात् वह श्रीकृष्णसे बोला- 'भगवन् ! पूर्णकाम परमेश्वर ! मेरी रक्षा कीजिये।' 'पाहि
पाहि कहता हुआ कालियनाग भगवान् श्रीहरिके सम्मुख आकर उनके चरणोंमें गिर पड़ा। तब उन
जनार्दनदेवने उससे कहा ।। २१-२२ ॥
श्रीभगवान्
बोले- तुम अपनी पत्नियों और सुहृदोंके साथ रमणकद्वीपमें चले जाओ। तुम्हारे मस्तकपर
मेरे चरणोंके चिह्न बन गये हैं, इसलिये अब गरुड तुम्हें अपना आहार नहीं बनायेगा ||
२३ ॥
नारदजी
कहते हैं- राजन् ! तब उस सर्पने श्रीकृष्णकी पूजा और परिक्रमा करके, उन्हें प्रणाम
करनेके अनन्तर, स्त्री-पुत्रोंके साथ रमणकद्वीपको प्रस्थान किया। इधर 'नन्दनन्दनको
कालियनाग ने अपना ग्रास बना लिया है' अपना ग्रास बना लिया है'
– यह समाचार सुनकर नन्द आदि समस्त गोपगण वहाँ आ गये थे। श्रीकृष्ण- को जलसे निकलते
देख उन सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने बेटेको छातीसे लगाकर
नन्दजी परमानन्दमें निमग्न हो गये। यशोदा ने अपने खोये पुत्रको
पाकर उसके कल्याणकी कामनासे ब्राह्मणोंको हुए धन का दान किया।
उस समय उनके स्तनोंसे स्नेहाधिक्यके कारण दूध झर रहा था। राजन् ! उस दिन रात में अधिक श्रमके कारण गोपाङ्गनाओं और ग्वाल-बालोंके साथ समस्त गोप
यमुनाके निकट उसी स्थानपर सो गये। निशीथकालमें बाँसोंकी रगड़से प्रलयाग्निके समान दावानल
प्रकट हो गया, जो सब ओरसे मानो गोपोंको दग्ध करनेके लिये उधर फैलता आ रहा था। उस समय
मित्रकोटि के गोप बलराम- सहित श्रीकृष्णकी शरणमें गये और भयसे
कातर हो दोनों हाथ जोड़कर बोले ।। २४ - ३० ।।
गोपोंने
कहा- शरणागतवत्सल महाबाहु कृष्ण ! कृष्ण ! प्रभो ! वनके भीतर दावाग्निके कष्टमें पड़े
हुए स्वजनोंको बचाओ ! बचाओ !! ॥ ३१ ॥
नारदजी
कहते हैं— तब योगेश्वरेश्वर देव माधव उनसे बोले – 'डरो मत। अपनी-अपनी आँखें मूँद लो
।' यों कहकर वे सारा दावानल स्वयं ही पी गये। फिर- प्रातः काल विस्मित हुए गोपगणों
तथा गौओंके साथ नन्दनन्दन शोभाशाली व्रजमण्डलमें आये ।। ३२-३३ ।।
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'कालियदमन तथा दावानल-पान' नामक
बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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